बिधि केहि भांति धरो उर धीरा।
सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी।
अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी।
होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीये मन माही।
लव निमेष जुग सय जाही।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी के क्रोध और सभा के उपस्थित सभी ज्ञानी लोगों पर उनके द्वारा आक्षेप किए जाने का वर्णन किया गया है ।
व्याख्या:–
सीता जी कहती हैं कि है विधाता! अब मैं किस तरह अपने हृदय को धैर्य बताऊं, क्या कभी शिरीष के फूल के कण से हीरे को काटा जा सकता है। यहां तो विद्वत सभा के सभी लोग की बुद्धि भोली अर्थात बावली हो गई है। हे शिव धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है, तुम्ही कोमल होकर मेरे मनोकामना को पूरा करो ।मैं जानती हूं कि तुम जड़ वस्तु हो ऐसा नहीं कर सकते। अतः तुम अपनी इस जड़ता को यहां बैठे लोगों पर उतार फेंको, क्योंकि यह चेतन होते हुए भी जड़ बन गए हैं। तभी तो कोई मेरे पिताजी को नहीं समझा देख रहे है। तथा अन्य सभी विद्वान भी मौन तमाशा देख रहे हैं।
जड़ता त्यागने के बाद तनिक अपनी दृष्टि रघुनाथ जी के कोमल शरीर पर डालो तथा उसी के समरूप हल्के हो जाओ। सीता जी के मन में अत्यधिक संताप हो रहा है। इसी कारण उन्हें पलक झपक में लगा एक क्षण भी सो योगों के समान लग रहा है। वह श्री राम जी की कोमलता का स्मरण करके ईश्वर से उन पर कृपा करने की प्रार्थना करती हैं ।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा –अवधी। शैली –प्रबंध
गुण –माधुर्य। रस –श्रृंगार और भक्ति
छंद –दोहा। अलंकार –अनुप्रास अलंकार
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