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प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि,राजत लोचन लोल। खेलत मनसिज मीन जुग जनु , बिधु मंडल डोल।।

 प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि,राजत लोचन लोल।

खेलत मनसिज मीन जुग जनु , बिधु मंडल डोल।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।

 प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी द्वारा श्री राम को निरंतर देखने रहने तथा उनके नेत्रों का मोहक वर्णन किया गया है ।


व्याख्या:–

 सीता जी प्रभु श्री राम को निरंतर देख रही हैं, तभी सभा में किसी ने उनको देख लिया है, जिससे वह लज्जावती पृथ्वी को देखने लगती हैं। इस तरह उनका श्री राम को देखने का कर्म निरंतर चल रहा है, कभी व श्रीराम को देखती हैं तो कभी पृथ्वी को देखती है, जिस कारण उनके चंचल नेत्र ऐसे लग रहे हैं मानो चंद्र मंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियां जल क्रीडाए कर रही हैं।


 काव्य गत सौंदर्य 

भाषा –अवधि ।       शैली –प्रबंध और वर्णनात्मक 

गुण –माधुर्य ।            रस –श्रृंगार 

छंद –दोहा ।            अलंकार –अनुप्रास अलंकार

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