गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी।
प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जलु रह लोचन कोना।
जैसे परम कृपन कर सोना।।
सकुची व्याकुलता बडि जानी।
धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
तन मन वचन मोर पनु साचा।
रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्री राम के प्रति सात्विक प्रेम का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया गया है
व्याख्या:–
यहां कवि सीता जी की वाणी की असमर्थता को प्रकट करते हुए कहते हैं कि सीता जी के प्रेमभाव की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख्यरुपी कमल ने रोक रखा है अर्थात वह कुछ बोल नहीं पा रही है। जब वह भ्रमरी लज्जारूपी रात देखती है, तो वह अत्यंत मौन होकर कमल में बैठी रहती है और स्वयं को प्रकट नहीं करती, क्योंकि वह तो रात्रि के बीत जाने पर ही प्रातः काल में प्रकट होकर गुनगुनाती है अर्थात सीताजी लज्जा के कारण कुछ नहीं कह पाती और उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।
उनका मन अत्यंत भावुक है जिसके कारण उनकी आंखों में आंसू छलछला आते है, परंतु वह उन आसुओं को बाहर नहीं निकलने देती हैं।
सीताजी के आंसू आंखों के कोनों में ऐसे समाए हुए हैं जैसे महाकंजूस का सोना घर के कोनों में ही गड़ा रहता है। सीता जी अत्यंत विचलित हो रही थी, जब उन्हें अपनी इस व्याकुलता का बोध हुआ तो वह सकुचा गई और अपने हृदय में रखकर अपने मन में विश्वास है कि यदि मेरे तन, मन, वचन से श्री राम का वरण सच्चा है, रघुनाथ जी के चरण कमलों में मेरा चित्र वास्तव में अनुरक्त है तो ईश्वर मुझे उनकी दासी अवश्य बनाएंगे।
काव्य सौंदर्य
भाषा शैली प्रबंध और चित्रात्मक
गुण माधुर्य
रस श्रृंगार शब्द शक्ति अभिधा लक्षणा
अलंकार अलंकार
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