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जौ चाहत चटक न घटै मैलौ होइ न मित्त। रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह–चीकने चित्त।।

 जौ चाहत चटक न घटै मैलौ होइ न मित्त।

रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह–चीकने चित्त।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के नीति शीर्षक से उद्धृत है यह कभी बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग :-

उपरोक्त दोहे में बिहारी जी ने व्यक्ति को अपने मन को शुद्ध करने की शिक्षा दी है। उन्होंने मित्रता के मध्य धन को ना आने देने का परामर्श दिया है।


 व्याख्या:-

 कवि बिहारी कहते हैं कि हे मित्र! यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे मन की उज्जवलता और कांति कभी समाप्त न हो, तो प्रेम रूपी तेल से चिकने मन का क्रोध, गर्व, ईर्ष्या, द्वेष आदि रजोगुणी धूल से स्पर्श मत होने दो। जिस प्रकार तेल लगी हुई वस्तु पर यदि धूल के कण चिपक जाएं तो वह कांति हीन हो जाती है अर्थात गंदी हो जाती है, उसी प्रकार यदि मनुष्य के मन में क्रोध आदि रजोगुणी वृत्तियां आ जाएं, तो मन मालिन हो जाता है।

 यदि मनुष्य अपने चित्त को शुद्ध करना रखना चाहता है, तो उसे इन तामसिक और रजोगुणी वृत्तियों से दूर रहना होगा तथा उन्हें मन में आने से रोकना होगा।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक

गुण - प्रसाद । रस - शांत

छन्द - दोहा।

 अलंकार - अनुप्रास अलंकार ,रूपक अलंकार, श्लेष अलंकार।



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