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बुरौ बुराई जौ तजै, तौ चितु खरौ डरातु। ज्यों निकलंकु मयंकु लखि, गनैं लोग उतपातु।।

 बुरौ बुराई जौ तजै, तौ चितु खरौ डरातु। 

ज्यों निकलंकु मयंकु लखि, गनैं लोग उतपातु।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के नीति शीर्षक से उद्धृत है यह कभी बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-

 प्रस्तुत दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि यदि दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता को त्याग भी दे, तब भी लोग के मन में उसके प्रति संदेह बना रहता है।


 व्याख्या:-

 अगर दुष्ट व्यक्ति अपनी बुराइयों को त्याग देता है तब भी लोगों के मन में उसके प्रति संदेह व्याप्त रहता है अर्थात उनके मन में शंका बनी रहती है। जैसे निष्कलंक चंद्रमा को देखकर किसी अपशकुन होने की संभावना का आभास होता है।

 लोगों का मानना है कि निष्कलंक चंद्रमा हमेशा धरती पर भूचाल ही लाता है, इसलिए दुष्ट व्यक्ति की प्रति भी यही धारणा बनी रहती है। जिस प्रकार चंद्रमा का निष्कलंक होना असंभव है, उसी प्रकार दुष्टि व्यक्ति की दुष्टता छोड़ना असंभव है।



 काव्यगत सौंदर्य 

भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक

गुण - प्रसाद । रस - शांत

 छंद - दोहा।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार।



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