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स्वारथु सुकृतु न श्रमु वृथा, देखि बिहंग बिचारि।

 स्वारथु सुकृतु न श्रमु वृथा,

देखि बिहंग बिचारि।

बाजि पराए पानि परि,

तूं पच्छीन न मारि।।

 


संदर्भ:-

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के नीति शीर्षक से उद्धृत है यह कभी बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


प्रसंग:-

 इस दोहे में कवि अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को औरंगजेब की बातों में आकर हिंदू राजाओं पर आक्रमण न करने के लिए अन्योक्ति के द्वारा सचेत किया है।


 व्याख्या:-

 कवि बिहारी लाल जी ने राजा जयसिंह को बाज की भांति दुर्व्यवहार न करने की प्रेरणा देते हुए कहा कि हे(राजा जयसिंह रूपी) बाज! इन छोटे पक्षियों (अपने साथी) अर्थात् छोटे राजाओं को मारने से तेरा क्या स्वार्थ सिद्ध होता है अर्थात क्या फायदा होगा। ना तो ये सत्कर्म है और ना ही तेरे द्वारा किया श्रम (काम) है।

       अतः हे बाज! तू भली - भांति पहले विचार - विमर्श कर ,उसके बाद कोई काम कर ।इस तरह दूसरों के बहकावे में आकर अपने सह - साथियों( पक्षियों) का संहार न कर।

तू औरंगजेब के कहने पर अपने पक्ष के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करके उनका संहार मत कर, क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर औरंगजेब को प्राप्त होता है।

काव्यगत सौन्दर्य:—

 भाषा- ब्रज शैली- मुक्तक 

रस - शान्त गुण - प्रसाद और ओज

छंद - दोहा 

अलंकार - अनुप्रास, श्लेष , अन्योक्ति अलंकार।


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