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बढ़त–बढ़त संपति–सलिलु, मन–सरोजु बढ़ि जाइ। घटत–घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ।।

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 बढ़त–बढ़त संपति–सलिलु, मन–सरोजु बढ़ि जाइ। 

घटत–घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ।।


संदर्भ:-

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के नीति शीर्षक से उद्धृत है यह कभी बिहारी लाल द्वारा रचित बिहारी सतसई से लिया गया है।


 प्रसंग:-

 उपरोक्त दोहे में बिहारी जी कहते हैं संपत्ति बढ़ने से मनुष्य के मन की अभिलाषाएं भी बढ़ती जाती हैं। संपत्ति की का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसी बात का चित्रण यहां किया गया है।


 व्याख्या:-

 कवि बिहारी कहते हैं कि जब मनुष्य का संपत्ति रूपी जल बढ़ता है, तो उसका मन रूपी कमल भी बढ़ जाता है अर्थात जैसे-जैसे मनुष्य के पास धन बढ़ने लगता हैं, वैसे वैसे ही उसकी इच्छाएं भी बढ़ने लगती हैं, परंतु जब संपत्ति रूपी जल घटने लगता है, तब मनुष्य का मन रूपी कमल नीचे आता है, भले ही वह जड़ सहित नष्ट क्यों ना हो जाए अर्थात धन चले जाने पर उसकी इच्छाएं कम नहीं होती; जैसे जल के बढ़ने पर कमल नाल बढ़ जाता है, लेकिन जल घटने पर वह वही नहीं घटती, चाहे जड़ सहित मुरझा ही क्यों ना जाए।


 काव्यगत सौंदर्य


भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक

गुण - प्रसाद । रस - शांत

 छंद - दोहा।

अलंकार - अनुप्रास अलंकार, पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, रूपक अलंकार।


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