सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरछी सी भौंहैं।
तून सरासन बान धरे, तुलसी बन - मारग में सुठि सोहैं।।
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।
पुछति ग्राम बंधु सीय हों 'कहौ सांवरे से,सखि रावरे को हैं?'।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खण्ड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में वन मार्ग में जा रहे श्री राम, सीता और लक्ष्मण को देखकर ग्रामीण स्त्रियां सीताजी से उत्सुकतावश प्रश्न पूछती है। वे श्रीराम के बारे में जानना चाहती हैं तथा उनसे परिहास भी करती हैं।
व्याख्या:-
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियां सीता जी से पूछती है कि जिनके सिर पर जटायं हैं, भुजाएं और वक्ष स्थल विशाल है, नेत्र लाल है, तिरछी भौंहैं हैं, जिन्होंने तरकस, बाण और धनुष धारण कर रखे हैं, जो वनमार्ग में अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं तथा बार-बार आदर व प्रेम पूर्ण चित्त से तुम्हारी और देखते हैं, उनका यह सौंदर्य रूप हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियां सीता जी से प्रश्न पूछती हैं कि है कि हे सखि! ये सांवले (श्रीराम) से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं? यह तुम्हारे क्या लगते हैं?
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार
छन्द - सवैया। शब्द शक्ति - व्यंजना
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
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