नृपन्ह केरि आसा निसि नासी।
वचन नखत अवली न प्रकासी।।
मानी महिप कुमुद सकुचाने।
कपटी भूप उलूक लुकाने।।
भए बिसोक कोक मुनि देवा।
बरषहिं सुमन जनावहि सेवा।।
गुरु पद बंदि सहित अनुरागा।
राम मुनिन्ह आयसु मागा।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने श्रीराम द्वारा धनुष भंग से पहले गुरु और मुनियों से आज्ञा मांगने, सभा में उपस्थित राजाओं की मन: स्थिति राम कि विनयशीलता और उदारता का वर्णन किया है।
व्याख्या:–
कवि कहते हैं कि जब श्री राम धनुष भंग के लिए मंच से उठे तो स्वयंबर सभा में उपस्थित राजाओं की सीता को प्राप्त करने की मनोकामना नष्ट हो गई तथा उनके वचन रूपी तारों का एक समूह चमकना बंद हो गया अर्थात सभी मौन हो गए। वहां जो अभिमानी कुमुद रूपी राजा थे, वे सकुचाने लगे तथा श्री राम रूपी सूर्य को देख कर मुरझा गए और कपट रूपी उल्लू की तरह छिप गए, जिस प्रकार रात होने पर चकवा चकवी अपने बिछोह के कारण शोक में डूब जाते हैं, उसी प्रकार सभा में उपस्थित मुनि व देवता भी चकवारूपी शोक में डूबे हुए थे, परंतु श्री राम की तत्परता देख उनका दुःख समाप्त हो गया।
अब राम और सीता के संयोग की बाधा समाप्त हो गई। श्री राम को देखकर सभा में उपस्थित समस्त जन फूलों की वर्षा कर रहे हैं। इसी बीच श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की प्रेम पूर्वक बंदना कर अन्य सभी मुनियों से धनुष भंग करने की अनुमति मांगते हैं।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा –अवधि। शैली –प्रबंधऔर विवेचनात्मक
गुण –माधुर्य । रस – भक्ति
छंद – दोहा । शब्द शक्ति –अभिधा और व्यंजना
अलंकार –अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार
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