गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा।
अति लाघवं उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें।
काहुं न लखा देख सबु ठाढ़े।।
तेही छन राम मध्य धनु तोरा।
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।
प्रसंग :–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम द्वारा धनुष तोड़ने के पश्चात वातावरण की स्थिति का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
व्याख्या:–
तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम ने मन –ही– मन अपने गुरु जी को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को अपने हाथ में उठा लिया। जैसे ही श्री राम ने धनुष को अपने हाथ में उठाया तो वह बिजली की भांति चमका और आकाश में मंडलाकार हो गया।
श्री राम ने यह कार्य इतनी फुर्ती व कुशलता से किया कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी उन्हें हाथ में धनुष लेते हुए और प्रत्यंचा चढ़ाते हुए और खींचते हुए नहीं देखा अर्थात किसी को पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने धनुष हाथ में लिया, कब प्रत्यंचा चढ़ाई और कब खींच दिया। सारा कार्य एक क्षण में ही समाप्त हो गया, उसी क्षण उन्होने धनुष को बीच में से तोड़ दिया। धनुष टूटने की इतनी भयंकर ध्वनि हुई कि वह तीनो लोकों में व्याप्त हो गई।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा –अवधी। शैली –प्रबंध और सुक्तिपरक
गुण–माधुर्य। रस –श्रृंगार ओर अद् भुत
छन्द–दोहा । शब्द शक्ति–अभिधा और लक्षणा
अलंकार–अनुप्रास अलंकार।
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