चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की-सी कतरन,
छिपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी, पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय,
वह जीवन की जिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिन भर में वह मीलों चलती,
अथक, कार्य से कभी न करती।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के चींटी शीर्षक से उद्धृत है यह कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित युगवाणी काव्य संग्रह से ली गई है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने चींटी की सामाजिकता तथा क्रियाशीलता को चित्रित किया है।
व्याख्या:-
पंत जी कहते हैं कि चींटी हमारे समाज की एक सामाजिक तथा मेहनत प्राणी है, वह एक सभ्य नागरिक है, जिस प्रकार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज के नियमों व कर्तव्यों का पालन करता है, उसी प्रकार चींटी भी अपने समाज के नियमों व कर्तव्यों का पालन करती है अर्थात चींटी भी परिश्रमी और अच्छी नागरिक हैं। कवि पंत कहते हैं कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? उसके मन को कभी जाना है? उसका शरीर भूरे बालों की कतरन लगता है उसका छोटा व पतला रूप किसी से नहीं छिपा है। वह नितांत छोटी होते हुए भी संपूर्ण पृथ्वी पर निडरता से जीवन व्यतीत करती है। तथा निरंतर श्रम करते हुए अपने कार्य में तल्लीन होकर जुटी रहती है। वह क्रियाशीलता इच्छा शक्ति का प्रमाणिक रूप है तथा जीवन की कभी न खत्म होने वाली चिंगारी के समान है। चींटी का शरीर तिल के समान लघु कण है वह प्राणों की चमक और झिलमिलाहट के समान है। वह दिनभर मिलों चलती है, परंतु परिश्रम से कभी नहीं डरती निरंतर बिना थके सदा काम करती रहती है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - साहित्य खड़ी बोली।
शैली - वर्णनात्मक।
गुण - ओज।
रस - वीर।
अलंकार - उपमा अलंकार।
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