अध्याय 5
सुमित्रानंदन पंत
चींटी
पद्यांश 1
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे-सी जो हिल-डुल
चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल
वह है पिपीलिका पांति!
देखो ना, किस भांति
काम करती वह सतत!
कन-कन कनके चुनती अविरत
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के चींटी शीर्षक से उद्धृत है यह कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित युगवाणी काव्य-संग्रह से ली गई है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पंक्तियों में चींटी जैसी तुच्छ प्राणी की निरंतर गतिशीलता का, निर्भय होकर विचरण करना, कभी हार ना मानने जैसी प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :-
कवि कहता है कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? वह अत्यंत सरल और सीधी है। वह पतली और काली रेखा की भांति, काले धागे की भांति हिलती-डुलती हुई, अपने छोटे-छोटे पैरों से प्रत्येक क्षण चलती है। वे सब एक पंक्ति में आगे पीछे अर्थात मिलकर होती हुई चलती हैं तथा देखने में काले धागे की रेखा-सी दिखती है। देखो! वह चींटियां किस तरह पंक्ति बद्ध होकर निरंतर अपने काम में लगी हुई है। वह बिना रुके एक-एक कण इकट्ठा कर अपने घर ले जाती हैं अर्थात वे कभी हार नहीं मानती तथा लगातार श्रम से अपने परिवार के लिए भोजन को एकत्र करने के काम में तल्लीन रहती हैं। चींटी श्रम की साकार व सजीव मूर्ति है, यद्यपि वह अत्यंत लघु प्राणी है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - साहित्य खड़ी बोली। शैली - वर्णनात्मक
गुण - ओज। रस- वीर
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार ,पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।
पद्यांश 2
गाय चराती, धूप खिलाती, बच्चों को निगरानी करती,
लड़ती अरि से तनिक न डरती, दल के दल सेना संवारती,
घर आंगन, जनपथ बुहारती।
संदर्भ:-
पूर्ववत्
प्रसंग:-
इन पंक्तियों में चींटियों की कर्मठता के स्वरूप का चित्रण किया गया है।
व्याख्या:-
कवि पंत जी कहते हैं कि चींटियों के पास भी अपनी गायें होती है। वह अपनी गायों को चराती हैं और उन्हें यथासमय धूप दिलाती हैं। ये अपने बच्चों की देखभाल करती हैं तथा शत्रुओं से लड़कर अपनी सुरक्षा करती हैं, चींटियां भी अपना सामूहिक दल बनाती हैं और बहुत सुंदर सेना का निर्माण करती है। यह चिंटियां बहुत सारी गंदी वस्तुओं को उठाकर ले जाती हैं और घर-आंगन व रास्ते को झाड़- पोंछकर साफ कर जाती हैं ।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - साहित्य खड़ी बोली ।
शैली - वर्णनात्मक।
गुण - ओज।
रस - वीर।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 3
चींटी है प्राणी समाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की-सी कतरन,
छिपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी, पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय,
वह जीवन की जिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिन भर में वह मीलों चलती,
अथक, कार्य से कभी न करती।।
संदर्भ:-
पूर्ववत्
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने चींटी की सामाजिकता तथा क्रियाशीलता को चित्रित किया है।
व्याख्या:-
पंत जी कहते हैं कि चींटी हमारे समाज की एक सामाजिक तथा मेहनत प्राणी है, वह एक सभ्य नागरिक है, जिस प्रकार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज के नियमों व कर्तव्यों का पालन करता है, उसी प्रकार चींटी भी अपने समाज के नियमों व कर्तव्यों का पालन करती है अर्थात चींटी भी परिश्रमी और अच्छी नागरिक हैं। कवि पंत कहते हैं कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? उसके मन को कभी जाना है? उसका शरीर भूरे बालों की कतरन लगता है उसका छोटा व पतला रूप किसी से नहीं छिपा है। वह नितांत छोटी होते हुए भी संपूर्ण पृथ्वी पर निडरता से जीवन व्यतीत करती है। तथा निरंतर श्रम करते हुए अपने कार्य में तल्लीन होकर जुटी रहती है। वह क्रियाशीलता इच्छा शक्ति का प्रमाणिक रूप है तथा जीवन की कभी न खत्म होने वाली चिंगारी के समान है। चींटी का शरीर तिल के समान लघु कण है वह प्राणों की चमक और झिलमिलाहट के समान है। वह दिनभर मिलों चलती है, परंतु परिश्रम से कभी नहीं डरती निरंतर बिना थके सदा काम करती रहती है।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - साहित्य खड़ी बोली।
शैली - वर्णनात्मक।
गुण - ओज।
रस - वीर।
अलंकार - उपमा अलंकार।
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