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मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेश भवानी।। करहु सफल अपानि सेवकाई। करि हितू हरहु चाप गरुआई।।

 मनहीं मन मनाव अकुलानी।

 होहु प्रसन्न महेश भवानी।।

 करहु सफल अपानि सेवकाई।

 करि हितू हरहु चाप गरुआई।।

 गननायक बरदायक देवा।

 आजु लगे किन्हीउ तुअ सेवा।।

 बार-बार विनती सुनि मोरी। 

करहु गुरुता अति थोरी।। 


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


प्रसंग:–

 उपरोक्त पद्यांश में सीता जी के विचलित हृदय से श्रीराम के लिए सभी देवताओं से विनती का वर्णन किया गया है।


 व्याख्या:–

 तुलसीदास जी ने सीता जी के हृदय रूपी भय का वर्णन करते हुए कहा है कि सीता, श्री राम को देखकर व्याकुल होकर मन– ही –मन विनती कर रही है कि है महेश भवानी! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आज तक मैंने जो आपकी सेवा की है, उसका फल मुझे दीजिए और मेरा कल्याण कीजिए। इस शिव धनुष के भारीपन का हरण कीजिए।

 हे गणनायक! वरदान देने वाले देव, आज के दिन के लिए मैंने आपकी सेवा की थी। आपसे मेरी बार-बार विनती है कि कृपा कर आप मेरी इस बिनती को सुने l

हे गणेश! इस धनुष के भारीपन को अत्यधिक कम कर दीजिए अर्थात सीता जी सभी देवतागणो तथा गणेश जी से श्रीराम की सहायता करने की विनती कर रही है।


 काव्य गत सौंदर्य

 भाषा –अवधि।        शैली –प्रबंध और वर्णनात्मक

 गुण –माधुर्य।            रस –भक्ति 

छंद –चौपाई ।      शब्द शक्ति –अभिधा लक्षणा 

अलंकार –अनुप्रास अलंकार।

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