अध्याय 2
तुलसीदास
वन पथ पर
पद्यांश 1
पूरे ते निकसी रघुबीर–बधू,
धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की,
फुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिर बूझति हैं—"चलनो अब केतिक,
पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै?"
तिय की लखि आतुरता पिय की आंखियां अति चारु चलीं जल च्वै।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण वन में जा रहे हैं। सुकोमल शरीर वाली सीताजी चलते-चलते थक गई है, उनकी व्याकुलता का अत्यंत मार्मिक वर्णन यहां किया गया है।
व्याख्या:-
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम, लक्ष्मण और अपनी प्रिया(पत्नी) के साथ महल से निकले तो उन्होंने बहुत धैर्य से मार्ग में दो कदम रखे। सीता जी थोड़ी ही दूर चली थीं कि उनके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई तथा सुकोमल होंठ पूरी तरह से सूख गए। तभी वे श्रीराम से पूछती हैं कि अभी हमें कितनी दूर और चलना है और हम अपनी पर्णकुटी (झोपड़ी) कहां बनाएंगे? पत्नी (सीताजी) की इस दशा व व्याकुलता को देखकर श्री राम जी की आंखों से आंसू की धारा प्रवाहित होने लगी। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर द्रवीभूत हो गए।
काव्य गत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - चित्रात्मक और मुक्तक
गुण - प्रसाद और माधुर्य । रस - श्रृंगार
शब्द शक्ति – लक्षणा और व्यंजना।
अलंकार– अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 2
"जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ,पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं,अरु पायं पखरिहौं भूभुरि गाढ़े।।"
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाहि को नेह लख्यौ, तनु बारि बिलोचन बाढ़े।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने सीता जी की व्याकुलता तथा सीता जी के प्रति राम के प्रेम का सजीव वर्णन किया है ।
व्याख्या :-
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी चलते चलते थक गई हैं और उन्हें प्यास लगने लगी है, तो लक्ष्मण उनके लिए जल लेने के लिए गए हुए हैं। तभी सीताजी, श्री राम से कहती हैं कि जब तक लक्ष्मण नहीं आते तब तक हम घड़ी भर कहीं छांव में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेते हैं। सीता जी श्री राम से कहती हैं, मैं तब तक आपका पसीना पहुंचकर हवा कर देती हूं तथा बालू से तपे हुए पैर धो देती हूं। श्रीराम समझ गए कि सीता जी थक चुकी हैं और वह कुछ समय विश्राम करना चाहती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने सीता जी को थका हुआ देखा तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर अपने पैरों में से कांटे निकाले। सीता जी ने अपने स्वामी के प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और आंखों में प्रेम रूपी आंसू छलक आए।
काव्य गत सौन्दर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
रस - श्रृंगार । गुण - मार्धुय
शब्द शक्ति - लक्षणा एवं व्यंजना
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 3
रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हुं ते कठोर हियो है।
राजहु काज अकाज न जान्यो, क्यों तिय को जिन कान कियो है।
ऐसी मनोहर मूरित ये,बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?।
आंखिन में,सखि! राखिबे जोग , किमि कै बनवास दियो है?।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद्यांश में ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर प्रतिक्रिया का वर्णन किया गया है।
व्याख्या:-
श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे हैं, उन्हें देखकर गांव की स्त्रियां आपस में बातें कर रही हैं। एक स्त्री दूसरी स्त्री से कहती है कि मुझे तो ज्ञात हो गया कि रानी के कैकेयी बड़ी अज्ञानी है। और पत्थर से भी कठोर हृदय वाली नारी हैं, क्योंकि उन्हें इन तीनों को वनवास देते समय तनिक भी दया नहीं आई। वह राजा दशरथ को बुद्धिहीन समझकर कहती हैं कि राजा दशरथ ने उचित-अनुचित का भी विचार ना कर अपनी पत्नी का कहा मान कर इन्हें वन में भेज दिया है। यह तीनों इतने मनोहर और सुंदर है कि इन्हें बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे? हे सखि! ये तीनों तो आंखों में बसने योग्य है अर्थात इनको अपने से दूर नहीं किया जा सकता। इन्हें वनवास क्यों दे दिया गया है?
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गूण - माधुर्य। रस - श्रृंगार और करुण
छन्द - सवैया । शब्द शक्ति - अभिधा,लक्षणा एवं व्यंजना
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 4
सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरछी सी भौंहैं।
तून सरासन बान धरे, तुलसी बन - मारग में सुठि सोहैं।।
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।
पुछति ग्राम बंधु सीय हों 'कहौ सांवरे से,सखि रावरे को हैं?'।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खण्ड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में वन मार्ग में जा रहे श्री राम, सीता और लक्ष्मण को देखकर ग्रामीण स्त्रियां सीताजी से उत्सुकतावश प्रश्न पूछती है। वे श्रीराम के बारे में जानना चाहती हैं तथा उनसे परिहास भी करती हैं।
व्याख्या:-
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियां सीता जी से पूछती है कि जिनके सिर पर जटायं हैं, भुजाएं और वक्ष स्थल विशाल है, नेत्र लाल है, तिरछी भौंहैं हैं, जिन्होंने तरकस, बाण और धनुष धारण कर रखे हैं, जो वनमार्ग में अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं तथा बार-बार आदर व प्रेम पूर्ण चित्त से तुम्हारी और देखते हैं, उनका यह सौंदर्य रूप हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियां सीता जी से प्रश्न पूछती हैं कि है कि हे सखि! ये सांवले (श्रीराम) से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं? यह तुम्हारे क्या लगते हैं?
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार
छन्द - सवैया। शब्द शक्ति - व्यंजना
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
पद्यांश 5
सुनि सुन्दर बैन सुधारस- सामने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्है समुझाइ कछु मुसकाइ चली।।
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै आलोकित लोचन-लाहु अली।
अनुराग तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली।।
संदर्भ:–
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में ग्रामीण स्त्रियों ने सीता जी से श्रीराम के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। इस पर सीता जी ने संकेतों के माध्यम से श्री राम के विषय में सब बता दिया।
व्याख्या:-
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि जब ग्रामीणों ने सीता जी से श्रीराम के विषय में पूछा कि सांवले और सुंदर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं? उनकी या अमृतरूपी मधुर वाणी सुनकर सीताजी समझ गई कि ये स्त्रियां बहुत चतुर हैं, वे उनके मनोभावों को समझ गई कि ये प्रभु (श्रीराम) के साथ मेरा संबंध जानना चाहती हैं, तब सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कुराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया।
उन्होंने अपनी मर्यादा का पूर्ण रुप से पालन किया। उन्होंने संकेत द्वारा ही समझा दिया कि यह मेरे पति हैं और अपने नेत्रों को तिरछा करके मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गई अर्थात कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय वह स्त्रियां श्रीराम की सुंदरता को एकटक देखती हुई, अपने नेत्रों को आनंद प्रदान करने लगीं अर्थात उनके सौंदर्य को देखकर अपने जीवन को धन्य मानने लगी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रेम के सरोवर में राम रूपी सूर्य उदित हो गया और उन ग्रामीण स्त्रियों के नेत्ररूपी कमल की सुंदर कलीयां खिल गई हैं अर्थात् उनके नेत्रों में अपने जीवन को सफल बना लिया।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - चित्रात्मक व मुक्तक
गुण - माधुर्य। रस - श्रृंगार
छन्द - सवैया। शब्द शक्ति - व्यंजना
अलंकार - अनुप्रास अलंकार।
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