Class 9th Hindi Chapter 1 कबीर साखी संदर्भ सहित व्याख्या :-
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कहा प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।।1।।
शब्दार्थ-
रीझि करि = प्रसन्न होकर,
प्रसंग = ज्ञान की बात, उपदेश ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं संत कबीर द्वारा रचित ‘साखी’ कविता शीर्षक से उद्धृत है।
प्रसंग-
इस साखी में कबीर ने गुरु का महत्त्व बताते हुए कहा है कि गुरु की कृपा से ही ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है।
व्याख्या-
कबीरदास जी कहते हैं कि सद्गुरु ने मेरी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान की एक बात समझायी, जिसे सुनकर मेरे हृदय में ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम उत्पन्न हो गया। वह उपदेश मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ईश्वर-प्रेमरूपी जल से भरे बादल बरसने लगे हों। उस ईश्वरीय प्रेम की वर्षा से मेरा अंग-अंग भींग गया। यहाँ कबीरदास जी के कहने का भाव यह है कि सद्गुरु के उपदेश से ही हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है और उसी से मन को शान्ति मिलती है। इस प्रकार जीवन में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा - सधुक्कड़ी। रस - शान्त,।
अलंकार-रूपक। छन्द-दोहा।
भावार्थ- प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बहुत सुन्दर ढंग से ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में गुरु की महत्ता का वर्णन किया है।
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माँहि।।2।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
कबीर जी कहते हैं कि जिस गुरु ने हमें ज्ञान प्रदान किया है उसके बदले में मेरे पास देने को कुछ नहीं है।
व्याख्या-
कबीरदास जी का कहना है कि गुरु ने मुझे राम नाम दिया है। उसके समान बदले में संसार में देने को कुछ नहीं है। तो फिर मैं गुरु को क्या देकर सन्तुष्ट करूं? कुछ देने की अभिलाषा मन के भीतर ही रह जाती है। भाव यह है कि गुरु ने मुझे राम नाम का ऐसा ज्ञान दिया है कि मैं उन्हें उसके अनुरूप कोई दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा - सधुक्कड़ी,
शैली-मुक्तक,
रस-शान्त,
छन्द-दोहा,
अलंकार-अनुप्रास।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
कबीर जी कहते हैं कि गुरु के मिलने से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और गुरु भगवान् की कृपा से ही मिलते हैं।
व्याख्या-
कबीर का कहना है कि ईश्वर की महान् कृपा से गुरु की प्राप्ति हुई है। इस सच्चे गुरु ने तुम्हारे भीतर ज्ञान का प्रकाश दिया है। हे जीवात्मा ! कहीं ऐसा न हो कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि ईश्वर की असीम कृपा से तो ‘सद्गुरु’ की प्राप्ति हुई और उसकी कृपा से तुम्हें ज्ञान मिला है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
रस- शान्त,
छन्द-दोहा,
अलंकार-अनुप्रास।
भाषा- सधुक्कड़ी।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड्त।
कहै कबीर गुर ग्यान तैं, एक आध उबरंत।।4।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस पद में कवि ने जीव और माया को क्रमश: पतिंगा और दीपक का रूपक मानते हुए माया की प्रबलता और गुरु के उपदेश की महत्ता को बतलाया है।
व्याख्या-
यह संसार माया के दीपक के समान है और मनुष्य पतिंगे के समान है। जिस प्रकार पतिंगा दीपक के सौन्दर्य पर मुग्ध हो अपने प्राणों को त्याग देता है उसी तरह मनुष्य माया पर मुग्ध हो भ्रम में पड़ कर अपने को मिटा देता है। गुरु के उपदेश से शायद ही एक-आध इससे छुटकारा पा जाते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा-सधुक्कड़ी।
रस-शान्त ।
छन्द-दोहा।
अलंकार-अनुप्रास।
जब मैं था तब गुरुनहीं,अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं ।।5।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहा संत कबीर की रचना है। कबीर गुरु तथा शिष्य के बीच एकात्मकता पर बल दे रहे हैं।
व्याख्या-
कबीर दास कहते हैं-जब तक मुझमें ‘मैं’ अर्थात् अहंकार था तब तक मुझे अपने सद्गुरु से एकात्मभाव प्राप्त नहीं हो सका। मैं गुरु और स्वयं को दो समझता रहा। अत: मैं प्रेम-साधना में असफल रहा, क्योंकि प्रेम-साधना का मार्ग बड़ा सँकरा है उस पर एक होकर ही चला जा सकता है। जब तक द्वैत भाव-मैं और तू–बना रहेगा प्रेम की साधना, गुरुभक्ति सम्भव नहीं है।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा- सधुक्कड़ी।
रस-शान्त ।
छन्द-दोहा।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मनाँ, कबीर सुमिरण सार ।।6।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
संत कबीर ने इन काव्य पंक्तियों में जगत् की असारता और परमात्मा की नित्यता बताते हुए अहंकार को नष्ट कर हरि-भक्ति की प्रेरणा दी है।
व्याख्या-
जीव के लिए परमात्मा की भक्ति और भजन करना एक नाव के समान उपयोगी है। इसके अतिरिक्त संसार में दुःख ही दुःख हैं। इसी भक्तिरूपी नाव से सांसारिक-दुःखरूपी सागर को पार किया जा सकता है। इसलिए मन, वचन और कर्म से परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, यही जीवन का परम तत्त्व है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा – सधुक्कड़ी।
शैली -उपदेशात्मक, मुक्तक।
छन्द -दोहा।
रस -शान्त ।
कबिरा चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ।
हरि सुमिरण हायूँ घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥7।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इसमें कबीरदास जी ने बताया है कि विषयरूपी अग्नि ईश्वर के नाम-स्मरण से ही शान्त हो सकती है।
व्याख्या-
कबीर का कथन है कि इस संसार में सब जगह विषय-वासनाओं की आग लगी हुई दिखायी देती है। मेरा मन भी उसी आग से जल रहा है अथवा झुलस रहा है । या यूँ कहिये कि मेरे मन में भी विषय वासनाएँ उमड़ रही हैं। अपने मन को संबोधित करते हुए संत कबीर कहते हैं कि हे मन! तेरे हाथ में ईश्वर-स्मरण रूपी जल का घड़ा है। तू इस जल से शीघ्र ही वासनाओं की आग बुझा ले । तात्पर्य यह है कि ईश्वर के नाम-स्मरण से ही इन विषय वासनाओं से छुटकारा पाया जा सकता है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा- सधुक्कड़ी।
शैली- मुक्तक।
छन्द- दोहा।
रस- शान्त।
अंघड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि ॥8।।
शब्दार्थ- अंषड़ियाँ = आँखों में । निहारि = देखकर। जीभड़ियाँ = ज़िह्वा में।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस दोहे में संत कबीर ने विरह से व्याकुल जीवात्मा के दुःख को व्यक्त किया है।
व्याख्या-
कबीर का कथन है कि जीवात्मा बड़ी व्याकुलता से परमात्मा की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये हुए है। भगवान् की बाट जोहते-जोहते उसकी आँखों में झाइयाँ पड़ गयी हैं, पर फिर भी उसे ईश्वर के दर्शन नहीं हुए। जीवात्मा परमात्मा का नाम जपते-जपते थक गयी, उसकी जीभ में छाले भी पड़ गये, परन्तु फिर भी परमात्मा ने उसकी पुकार नहीं सुनी क्योंकि सच्ची लगन, सच्चे प्रेम तथा मन की पवित्रता के बिना इस प्रकार नाम जपना और बाट जोहना व्यर्थ है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- सधुक्कड़ी।
शैली- मुक्तक।
छन्द- दोहा।
रस- शान्त।
अलंकार- पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास ।
झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद।
जगत चबैना काल का, कछु मुख में कछु गोद॥9।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
प्रस्तुत साखी में कबीर जी ने सांसारिक सुख को मिथ्या बताते हुए इस संसार की असारता को स्पष्ट किया है।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं – अज्ञानी मनुष्य सांसारिक सुखों को, जो कि मिथ्या और परिणाम में दुःखदायी हैं, सच्चे सुख समझते हैं और मन में बड़े प्रसन्न होते हैं। ये भूल जाते हैं कि यह सारा जगत् काल के चबैने-चना आदि के समान हैं जिसमें से कुछ उसके मुख में जा चुका है और कुछ भक्षण किये जाने के लिए उसकी गोद में पड़ा हुआ है।
काव्यगत सौन्दर्य-
भाषा- सधुक्कड़ी।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा ।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नॉहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।।10।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस साखी में कबीरदास जी ने अहंकार को ईश्वर के साक्षात्कार में बाधक बतलाया है। वे कहते हैं
व्याख्या-
जब तक हमारे भीतर अहंकार की भावना थी तब तक ईश्वर के दर्शन नहीं हुए थे, किन्तु जब हमने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया तो अहंकार बिल्कुल ही नष्ट हो गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश मिल जाने पर अज्ञानरूपी सारा अंधकार नष्ट हो गया है।
काव्यगत सौन्दर्य-
भाषा- सधुक्कड़ी।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस साखी में कबीर ने संसार की नश्वरता की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहा है कि अपने को उच्च स्थान पर पाकर गर्व नहीं करना चाहिए।
व्याख्या-
इस संसार की नश्वरता को बतलाते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तुम इस संसार में अपने ऊँचे स्थान पाकर क्यों गर्व करते हो। यह सारा संसार नश्वर है। एक दिन यह सारा वैभव नष्ट होकर धूल में मिल जायेगा और उस पर घास जम् श्येमी अथवा तुम्हें कल भूमि पर लेटना पड़ेगा अर्थात् तुम भी काल-कवलित हो जाओगे। लोग तुम्हें मिट्टी में दफना देंगे और उस पर घास जम जायेगी।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा- सधुक्कड़ी।
छन्द- दोहा।
अलंकार- उपमा और अनुप्रास ।
रस- शान्त।
यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठे रंग न भूल।।12।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस साखी में कबीर ने संसार को सेमल का फूल बताते हुए अल्पकालीन सांसारिक रंगीनियों में न फँसने का उपदेश दिया है।
व्याख्या-
संसार की असारता को बतलाते हुए कबीरदास जी का कहना है कि यह संसार सेमल के फूल की भाँति सुन्दर और आकर्षक तो है, किन्तु इसमें कोई गंध नहीं है। जिस प्रकार से तोता सेमल के फूल पर मुग्ध हो उसके सुन्दर फल की आशा में उस पर मँडराता रहता है और अन्त में उसे निस्सार रुई ही हाथ लगती है ठीक उसी प्रकार यह जीव इस संसार को अल्पकालीन रंगीनियों में भूला हुआ है। उसे इस झूठे रंग में सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य:-
अलंकार = उपमा।
भाषा- सधुक्कड़ी, रस- शान्त।
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
प्रस्तुत साखी में कबीर ने कहा है कि मनुष्य योनि पाकर भी यदि समय रहते ईश्वर-स्मरण नहीं किया गया तो हमारा जीवन व्यर्थ है।
व्याख्या-
कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तुम उस मनुष्य योनि में पैदा हुए हो जो बड़े ही सौभाग्य से प्राप्त होता है। इतना सुन्दर अवसर पाकर भी तुम सजग नहीं होते और ‘राम नाम’ का स्मरण नहीं करते। केवल पशु की भाँति अपने शरीर को पालन-पोषण कर रहे हो। यह समझ लो कि यदि समय रहते तुमने ‘राम’ का स्मरण नहीं किया तो अन्त में मिट्टी में ही मिलना होगा।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा-सधुक्कड़ी।
रस-शान्त ।
छन्द-दोहा।
यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथि।।14।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
इस साखी में कबीरंदास जी ने शरीर की नश्वरता का वर्णन किया है। वे कहते हैं –
व्याख्या-
यह शरीर मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है जिसे तुम बड़े अहंकार के साथ सबको दिखलाने के लिए साथ लिये घूमते हो, किन्तु एक ही धक्का लगने से यह टूटकर चूर-चूर हो जायेगा और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा अर्थात् काल के धक्के से शरीर नष्ट हो जायेगा और वह मिट्टी में मिल जायेगा।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा-सधुक्कड़ी।
रस-शान्त।
छन्द-दोहा।
कबिरा कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग।।15।।
सन्दर्भ-
पूर्ववत्।
प्रसंग-
देह के प्रति मनुष्य का मोह गहन होता है। कबीर ने इसी मोह के प्रति मनुष्य को सावधान किया है।
व्याख्या-
कबीरदास जी कहते हैं कि तुम अपने शरीर की सुन्दरता पर इतना क्यों घमण्ड करते हो। तुम्हारा यह घमण्ड सर्वथा व्यर्थ है। मरने के पश्चात् फिर यह शरीर ठीक उसी प्रकार तुम्हें नहीं मिलेगा जिस प्रकार अपनी केंचुल को एक बार छोड़ देने के पश्चात् सर्प को वह पुनः प्राप्त नहीं होती। वह उसके लिए निरर्थक हो जाती है।
काव्यगत सौन्दर्य –
भाषा-सधुक्कड़ी।
रस-शान्त ।
छन्द-दोहा।
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