Class 9 Hindi Chapter 4 रहीम दोहा संदर्भ सहित व्याख्या:-
1. जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
शब्दार्थ- प्रकृति = स्वभाव। कुसंग = बुरी संगति । भुजंग = सर्प।
सन्दर्भ-
प्रस्तुत दोहा रहीम (अब्दुल रहीम खानखाना) द्वारा रचित ‘रहीम ग्रन्थावली’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित ‘दोहा’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।
प्रसंग-
रहीम ने उच्चकोटि के नीति सम्बन्धी दोहों की रचना की है। प्रस्तुत दोहे में उत्तम प्रकृति तथा चरित्र की दृढ़ता पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या-
रहीम कवि का कहना है कि जो उत्तम स्वभाव और दृढ़ चरित्रवाले व्यक्ति होते हैं, बुरी संगति में रहने पर भी उनके चरित्र में विकार उत्पन्न नहीं होता है। जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर चाहे जितने भी विषैले सर्प लिपटे रहें, परन्तु उस पर सर्यों के विष का प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्ध और शीतलता के गुण को छोड़कर जहरीला नहीं हो जाता है। इस प्रकार सज्जन भी अपने सद्गुणों को कभी नहीं छोड़ते।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- उपदेशात्मक, मुक्तक।
रस- शान्त।
छन्द- दोहा।
अलंकार- दृष्टान्त।
2. रहिमन प्रीति सराहिये,मिले होत रंगदून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
शब्दार्थ- दून = दुगुना। जरदी = पीलापन। चून = चूना।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में सच्ची प्रीति की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या-
रहीम कवि कहते हैं कि उसी प्रेम की प्रशंसा करनी चाहिए जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम मिलकर दुगुना हो जाता है। दोनों प्रेमी अपना अलग-अलग अस्तित्व भूलकर एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं; जैसे हल्दी पीली होती है और चूना सफेद, परन्तु दोनों मिलकर एक नया (लाल) रंग बना देते हैं। हल्दी अपने पीलेपन को और चूना सफेदी को छोड़कर एकरूप हो जाते हैं। सच्चे प्रेम में भी ऐसा ही होता है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज
शैली- मुक्तक।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा।
अलंकार- दृष्टान्त।
3. टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि-फिरि पोइये, टूटे मुक्ताहार ॥
शब्दार्थ- सुजन = सज्जन । पोइय = पिरोना। मुक्ताहार = मोतियों का हार।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने सज्जनों के महत्त्व पर विचार प्रकट किये हैं।
व्याख्या-
वे कहते हैं कि यदि सज्जन रूठ भी जायँ तो उन्हें शीघ्र मना लेना चाहिए। यदि सौ बार भी नाराज हों तो भी उन्हें सौ बार ही मनायें; क्योंकि वे जीवन के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हार टूट जाने पर उसे बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार सज्जनों को भी बार-बार रूठने पर मनाकर रखना चाहिए; क्योंकि वे मोतियों के समान ही मूल्यवान होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा।
अलंकार- दृष्टान्त और पुनरुक्तिप्रकाश।
4. रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करे।।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि दे।
शब्दार्थ- ढरि = निकलते ही। जाहि = जिसे। गेह = घर।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
कवि रहीम का मत है कि घर से निकाला जानेवाला हर व्यक्ति घर का भेद खोल देता है।
व्याख्या-
रहीम जी कहते हैं कि आँसू, आँखों से निकलते ही मन के सारे दुःख प्रकट कर देते हैं। कवि का कथन है कि जिस व्यक्ति को घर से निकाला जायेगा, वह घर के सारे भेद क्यों न कह देगा। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर से निकाले जाने पर घर के सारे भेद दूसरों के सामने खोल देता है, उसी प्रकार से आँखरूपी घर से निकाले जाने पर आँसू भी मन के सारे भेद प्रकट कर देता है। आँसू अपनी उपस्थिति से यह प्रकट करते हैं कि व्यक्ति के हृदय में दुःख है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
रस- शान्त ।
अलंकार- दृष्टान्त ।
5. कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, तेही साँचे मीत।।
शब्दार्थ- संपति = वैभव में। साँचे = सच्चे। मीत = मित्र।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि ने सच्चे मित्र की पहचान बतलायी है।
व्याख्या-
कवि रहीम कहते हैं कि जब व्यक्ति के पास सम्पत्ति होती है तो अनेक लोग तरह-तरह से उसके सगे-सम्बन्धी बन जाते हैं, किन्तु जो विपत्ति के समय भी मित्रता नहीं छोड़ते, वे ही सच्चे मित्र होते हैं। इस प्रकार सच्चा मित्र विपत्ति की कसौटी पर सदैव खरा उतरता है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक ।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा।
अलंकार- अनुप्रास, रूपक।
6. जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह ॥
शब्दार्थ- तजि = छोड़कर। मीनन को = मछलियों का। छोह = वियोग।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में मछली को सच्चे प्रेम का आदर्श बताया गया है।
व्याख्या-
जब मछली पकड़ने के लिए नदी में जाल डाला जाता है, तब मछली जाल में फँस जाती है और पानी अपनी सहेली मछली का मोह त्यागकर आगे निकल जाता है, परन्तु मछली को जल से इतना प्रेम है कि वह पानी के बिना तड़प-तड़पकर मर जाती है। सच्चे प्रेम की यही पहचान है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
रस- शान्त।
छन्द- दोहा।
अलंकार- अन्योक्ति।
7. दीनन सबको लखत हैं,दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबन्धु सम होय॥
शब्दार्थ- दीन = निर्धन । लखत हैं = देखते हैं। दीनबन्धु = परमात्मा।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में रहीमदास जी ने बताया है कि जो व्यक्ति गरीबों के प्रति प्रेम करनेवाला होता है वह परमात्मा के समान है।
व्याख्या-
रहीम जी कहते हैं कि निर्धन व्यक्ति तो सबको देखता है अर्थात् सभी के सहयोग का आकांक्षी होता है तथा सभी को सहयोग देता भी है। इसके विपरीत गरीब की ओर किसी का भी ध्यान नहीं होता है। उसकी सभी उपेक्षा करते हैं। जो लोग गरीबों को देखते हैं अर्थात् उनसे प्रेम करते हैं और उनका सहयोग करते हैं, वे दोनों के भाई अर्थात् भगवान् के समान होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
छन्द- दोहा।
रस- शान्त।
गुण- प्रसाद।
अलंकार- अनुप्रास।
8. प्रीतम छबि नैननि बसी, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आपु फिरि।।
शब्दार्थ- परछबि = दूसरों की सुन्दरता । सराय = यात्रियों के ठहरने का सार्वजनिक स्थान। फिरि जाय = लौट जाता है।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि ने ईश्वर के प्रति अपने प्रेम की अनन्यता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या-
रहीम कवि कहते हैं कि मेरे नेत्रों में परमात्मारूपी प्रियतम का सौन्दर्य समाया हुआ है, फिर दूसरे के सौन्दर्य के लिए मेरे नेत्रों में कोई स्थान नहीं है। यदि कोई सराय यात्रियों से भरी रहे तो पथिक उसमें स्थान न पाकर स्वयं लौटकर अन्यत्र चला जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक
रस- शृंगार या भक्ति।
छन्द- दोहा।
अलंकार- दृष्टान्त ।
9. रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय।
टूटे से फिरि ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय॥
शब्दार्थ- तोरेउ = तोड़कर। जुरै = जुड़ता है।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि ने कहा है कि प्रेम के सम्बन्धों को कभी भी समाप्त नहीं करना चाहिए।
व्याख्या-
रहीम जी कहते हैं कि प्रेमरूपी धागे को चटकाकर मत तोड़ो। जिस प्रकार धागा एक बार टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ता और यदि वह जुड़ भी जाता है तो उसमें गाँठ पड़ जाती है, उसी प्रकार प्रेम-सम्बन्ध यदि एक बार टूट जाय तो फिर उसका जुड़ना कठिन होता है। इसको जोड़ने की कोशिश करने पर उनमें दरार अवश्य पड़ जाती है, पहले जैसी बात नहीं रहती, क्योंकि सम्बन्ध सामान्य होने पर भी व्यक्ति को पुरानी याद आती है कि एक समय था, जब इस मित्र ने दुर्व्यवहार किया था। इसलिए प्रेम सम्बन्ध को कभी तोड़ना नहीं चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
रस- शान्त ।
छन्द- दोहा ।
अलंकार- रूपक।
10. कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।
शब्दार्थ- कदली = केले का वृक्ष । भुजंग = सर्प । स्वाँति = स्वाति- नक्षत्र की वर्षा । दीन = मिलता है।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
रहीम संगति के प्रभावों की व्याख्या कर रहे हैं।
व्याख्या-
स्वाति नक्षत्र में बरसनेवाली जल की बूंदें तो एक जैसी ही होती हैं, किन्तु संगति के अनुसार उनके स्वरूप और गुण पूर्णतया बदल जाते हैं। वही बूंद केले पर गिरती है तो कपूर बन जाती है, सीप में गिरती है तो मोती बन जाती है और सर्प के मुख में गिरने पर वही विष बन जाती है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है, क्योंकि जैसी संगति मनुष्य करता है, उसे वैसा ही फल या परिणाम प्राप्त होता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
शैली - चमत्कारपरक और उपदेशात्मक है।
अनुप्रास तथा दृष्टान्त अलंकारों का सुन्दर उपयोग हुआ है।
11. तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहिं सुजान।।
शब्दार्थ- सरवर = तालाब। पर = दूसरे । सुजान = सज्जन।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि ने परोपकार की महत्ता को समझाया है।
व्याख्या-
रहीम कवि कहते हैं कि वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते हैं। तालाब भी अपने पानी को स्वयं नहीं पीता है। फल और जल का उपयोग तो दूसरे लोग ही करते हैं। इसी प्रकार सज्जनों की सम्पत्ति परोपकार के लिए ही होती है। वे अपनी सम्पत्ति को दूसरों के हित में लगा देते हैं। परोपकाराय सतां विभूतयः‘– में यही सत्य प्रकट हुआ है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
रस- शान्त।
छन्द- दोहा।
अलंकार- ‘सम्पत्ति सँचहिं सुजान’ में अनुप्रास है।
12. रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवारि॥
शब्दार्थ- लघु = छोटा। तरवारि = तलवार।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि ने समझाया है कि समयानुसार प्रत्येक वस्तु का महत्त्व होता है, चाहे वह बहुत छोटी ही क्यों न हो।
व्याख्या-
रहीम कवि कहते हैं कि बड़े लोगों को देखकर छोटों का निरादर नहीं करना चाहिए। उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि जिस स्थान पर सुई काम आती है, उस स्थान पर तलवार काम नहीं कर सकती। इसलिए छोटी चीजें या छोटे लोग भी समय आने पर बड़े काम के होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
भाषा- ब्रज।
शैली- मुक्तक।
छन्द- दोहा।
अलंकार- अनुप्रास और दृष्टान्त ।
13.यों रहीम सुख होत है, बढ़त देख निज गोत।
ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि,आँखिन को सुख होत॥
शब्दार्थ- गोत = गोत्र, परिवार। बड़ी = बड़ी। निरखि = देखकर।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
प्रस्तुत दोहे में कवि रहीम ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने गोत्र (जाति) की वृद्धि देखकर बहुत प्रसन्नता होती है।
व्याख्या-
कवि कहते हैं कि जिस प्रकार अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर व्यक्ति की आँखों को सुख मिलता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार को बढ़ता हुआ देखकर प्रसन्न होता है और उसे अमृद्ध देखकर अपार सुख का अनुभव करता है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
भाषा- ब्रज
शैली – मुक्तक
छन्द- दोहा
अलंकार- दृष्टान्त।
14. रहिमन ओछे नरन ते, तजौ बैर अरु प्रीति।
काटे-चाटे स्वान के, दुहूँ भाँति बिपरीति॥
शब्दार्थ- ओछे = संकुचित स्वभाव के। बैर = शत्रुता । दुहुँ = दो। विपरीत = विरुद्ध, बुरा।
सन्दर्भ-
पुर्ववत।
प्रसंग-
कवि तुच्छ प्रकृति के व्यक्तियों से वैर तथा प्यार दोनों ही अनुचित बता रहा है।
व्याख्या-
रहीम कहते हैं-जो व्यक्ति संकुचित स्वभावत्राले हैं उन्हें न शत्रुता रखना अच्छा होता है न प्यार करना । कुत्ता चाहे चाटे या काटे, दोनों ही बातें बुरी हैं। काट लेने पर घाव की पीड़ा अथवा मृत्यु हो सकती है। उसके चाटने से शरीर अपवित्र होता है। इसी प्रकार ओछे व्यक्तियों की शत्रुता तथा मित्रता, दोनों ही घातक होती है।
काव्यगत सौन्दर्य :-
भाषा- सरल ब्रजभाषा में अर्थ की विशदता सँजोयी गयी है।
शैली उपदेशात्मक है।
अलंकार- अनुप्रास तथा दृष्टान्त अलंकारों की शोभा है।
गुण- प्रसाद ।
रस- शान्त।
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