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जनन तन्त्र (Reproductive System)

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जनन तन्त्र (Reproductive System)


जीवित जीवों में होने वाली वह प्रक्रिया, जिनके द्वारा जीव अपनी जैसी संरचनाएँ बनाता है, जनन (Reproduction) कहलाती है। यह एक अतिमहत्त्वपूर्ण क्रिया है, जो एक विशेष चन्त्र द्वारा सम्पन्न होती है, जिसे जनन तन्त्र कहते हैं।


मानव जनन तन्त्र (human Reproductive System):–


मानव भी अन्य कशेरुकियों (Vertebrates) के समान एकलिंगी (Unisexual) प्राणी है। साथ ही उसमें लैंगिक द्विरूपता (Sexual dimorphism) भी पाई जाती है अर्थात् नर तथा मादा के जननांगों में असमानता होती है तथा बाह्य आकारिकी से हो नर व मादा में विभेदन कर सकते हैं। मानव एवं सभी कशेरुकियों में जनन मात्र लैंगिक स्वरुप में ही होता है, जिसके अन्तर्गत निषेचन के फलस्वरूप भ्रूण का निर्माण होता है। यह भ्रूण या तो अल्पविकसित अवस्था में सुरक्षात्मक आवरणों के साथ (अण्डे के रूप में) या फिर आंशिक पूर्ण विकसित अवस्था में मादा जन्तु से बाहर आता है। प्रथम श्रेणी वाले जन्तुओं को अण्डयुज (Oviparous) एवं द्वितीय श्रेणी वाले जन्तुओं को जरायुज (Viviparous) कहते हैं। मनुष्य जरायुज प्राणी होता है।


नर जनन तन्त्र (Male Reproductive System):–

 मानव के तर जनतन्त्र में निम्नलिखित अंगः पाए जाते हैं


(i) वृषण (Testes) पुरुषों में एक जोड़ा वृषण, उदरगुहा (Abdominal cavity) से बाहर शिश्न (Penis) के पास वृषण कोष या अण्ड कोष (Scrotal anca or acrotum) में सुरक्षित होते हैं। वृषण कोष को बैले समान संरचना होती है, जिसका तापमान शरीर से लगभग 2-2.5°C कम रहता है, जो शुक्राणु निर्माण में सहायक होता है, क्योंकि अधिक ताप के कारण शुक्राणुओं का परिपक्वन उदरगुहा में नहीं हो सकता है। प्रत्येक वृषण अपने कोप से संगाजी तन्तुओं के गुबह द्वारा जुड़ा रहता है, इस गुच्छ को गुबरनैकुलम (Gubernaculum) कहते हैं।

प्रत्येक वृषण के अन्दर अनेक महान कुण्डलित शुक्रनलिकाएँ (Seminiferous tubules) उपस्थित होती है, जिसकी जननिक उपकला (Germinal epithelium) में शुक्राणुजनन (Spermatogenesis) क्रिया से शुक्राणुओं का निर्माण होता है। शुक्रनलिकाएँ आपस में मिलकर जाल सदृश रचनाएँ बनाती है, जिसे कृषण जालक (Rete testin) कहते है। इस जालक से अपवाही नलिकाएँ (Efferent ductules) निकलती है, जो अधिवृषण (Epididymis) का निर्माण करती हैं। वृषण से नर हॉर्मोन टेस्टोस्टेरॉन (Testosterone) का स्रावण भी होता है।


(ii) अधिवृषण (Epididymis) यह प्रत्येक वृषण से चिपकी कुण्डलित, नलिकाकार, लम्बी, चपटी संरचना है, जिसका निर्माण वृषण की अपवाहक नलिकाओं द्वारा होता है। यह लगभग 6 मीटर लम्बी संरचना है, जो स्वयं तीन भागो शीर्ष (Head) काय (Body) एवं पुच्छ (Tail) में विभक्त रहती है। इसमें शुक्राणु परिपक्व होते हैं तथा उनमें गति उत्पन्न होती है। प्रत्येक कृषण पर चिपके अधिवृषण की सभी नलिकाएं मिलकर शुक्रवाहिनियाँ (Vas deferens) बनाती हैं।


(iii) शुक्रवाहिनियाँ (Vas Deferens) ये एक जोड़ी लगभग 40-45 सेमी लम्बी तथा मोटी संरचना होती है। शुक्राणु, इनके द्वारा उदरगुहा में स्थित शुक्राशय में पहुँचते हैं।


(iv) शुक्राशय (Seminal Vesicle) यह थैलीनुमा संरचना होती है। इसके द्वारा, हल्का पीला, क्षारीय, पोषक तरल का स्त्रावण होता है, जिसमें शुक्राणु गति करते हैं। शुक्राणु इस तरल के साथ मिलकर वीर्य (Semen) का निर्माण करते हैं। शुक्राशय से निकलने वाली एक छोटी नलिका शुक्रवाहिनी से मिलकर स्खलन नलिका (Ejaculatory duct) बनाती है।


(v) मूत्रमार्ग (Urethra) शुक्राशय स्खलन नलिका की सहायता से मूत्राशय (Urinary bladder) के एक संकरे भाग मूत्रमार्ग में खुलता है। मूत्रमार्ग शिश्न के शीर्ष सिरे पर मूत्र जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलता है। यह शुक्राणु तथा मूत्र के बाहर निकलने का सम्मलित मार्ग होता है।


(vi) शिश्न (Penis) यह बेलनाकार पेशीय मैथुनांग (Copulatory organ) होता है अर्थात् यह मैथुन क्रिया में सहायक होता है। इसकी संरचना रुधिर एवं पेशियों द्वारा होती है। यह वृषण कोषों के अतिरिक्त नर जनन तन्त्र का एक मात्र बाह्य जननांग है।


(vii) सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory Glands) प्रोस्टेट (Prostate), काउर्प (Cowper), पेरीनियल (Perineal) ग्रन्थि नर जनन तन्त्र की सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं। ये वीर्य निर्माण, शुक्राणुओं को पोषण देने तथा उनको जीवित रखने में सहायता करती है।




शुक्राणु (Sperm):–


मानव में शुक्राणु लगभग 60μ लम्बा होता है। यह नर जननांग की प्रमुख इकाई होता है।


यह तीन भागों में विभाजित होता है


(i) सिर (Head) इस भाग में मुख्यतया केन्द्रक तथा गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। सिर का प्रारम्भिक भाग एक्रोसोम (Acrosome) होता है, जिससे अण्डे के आवरण को घोलने वाले एन्जाइम्स स्त्रावित होते हैं। इस प्रकार यह निषेचन में सहायक होता है।


(ii) ग्रीवा तथा मध्य भाग (Neck and Middle Piece) इस भाग में एक जोड़ी तारककाय (Centriole) उपस्थित होते हैं। इस भाग से शुक्राणु के अन्त तक एक अक्षीय तन्तु उपस्थित होता है। इस अक्षीय तन्तु के चारों ओर शुक्राणु में उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) शुक्राणु को गति करने के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं।


(iii) पूँछ (Tail) ग्रीवा व मध्य भाग का अक्षीय तन्तु इस भाग में भी उपस्थित रहता है। इसके कुछ भाग पर कोशिकाद्रव्य का आवरण होता है, जिसे मुख्य खण्ड (Main piece) कहते हैं तथा शेष भाग जिस पर कोशिकाद्रव्य का आवरण नहीं होता, उसे अन्त्य खण्ड (End piece) कहते हैं।



मादा जनन तन्त्र (Female Reproductive System):–


मानव के मादा जनन तन्त्र में निम्नलिखित अंग पाए जाते हैं


(i) अण्डाशय (Ovaries) ये एक जोड़ी, अण्डाकार, उदरगुहा में वृक्कों (Kidneys) के नीचे श्रोणि मेखला (Pelvic girdle) के पीछे गर्भाशय में इधर-उधर स्थित होती हैं। यह लगभग 3 सेमी लम्बी, 2 सेमी चौड़ी व 0.8 सेमी मोटी होती है। इसमें हजारों अण्डाणुओं (Ovum) का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त ये मादा हॉर्मोन्स अर्थात् प्रोजेस्टेरॉन (Progesterone) तथा एस्ट्रोजन (Oestrogen) का भी स्त्रावण करती हैं।


(ii) अण्डवाहिनियाँ (Oviduets) यह कीपनुमा झालरदार संरचनाएँ हैं। इनका अधिकांश भाग फैलोपियन नलिका (Fallopian tube) कहलाता है, जहाँ निषेचन सम्पन्न होता है। इसमें अण्डाशय से अण्डाणुओं को प्राप्त कर निषेचन होने तक उनके भरण पोषण का कार्य भी होता है। अण्डाशय से दूर की तरफ दोनों अण्डवाहिनियाँ आपस में जुड़कर एक थैलीनुमा संरचना बनाती है, जिसे गर्भाशय कहते हैं।


(iii) गर्भाशय (Uterus) यह दोनों अण्डवाहिनियों के खुलने का स्थान होता है, जो लगभग 7.5 सेमी लम्बा, 3 सेमी मोटा तथा 5 सेमी चौड़ा थैलेनुमा, खोखला होता है। भ्रूण का परिवर्धन तथा भरण-पोषण यहीं होता है। गर्भाशय का अन्तिम भाग योनि कहलाता है।


(iv) योनि (Vagina) यह लगभग 7-10 सेमी लम्बी, थैले समान, मूत्राशय तथा मलाशय के मध्य स्थित होती है। यह पुरुष के लिंग का प्रवेश द्वार, प्रसव पश्चात् शिशु के बाहर आने का मार्ग तथा रजोधर्म स्त्रावण का मार्ग है।



(v) बाह्य जननांग (External Genitalia) ये योनि से सम्बन्धित सहायक जननांग हैं तथा इन्हें सम्मलित रूप से भग (Vulva) कहते है। भग का ऊपरी फूला भाग जघन उत्थान (Mons pubis) कहलाता है, जिस पर यौवनारम्भ से ही रोम (Hairs) आने लगते हैं।

भग में दो जोड़ी ओष्ठ (Labia) होते हैं। इनके बीच में एक छोटा सा तर्कुरूप क्षेत्र प्रकोष्ठ (Vestibule) होता है।


इसके अधिकांश भाग में योनि छिद्र (Vaginal orifice) स्थित होता है। प्रकोष्ठ के साथ ही यहाँ एक छोटी-सी पेशीय संरचना उभरी रहती है, जो भग ओष्ठों के ऊपरी सिरों के जोड़ के अन्दर स्थित होती है। इसे भगशेफ (Clitoris) कहते हैं। भगशेफ को नर के शिश्न का समवृति अंग मानते हैं।



(vi) सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands) इनमें बार्थोलिन एवं पेरीनियल ग्रन्थियाँ (Perineal glands) आती हैं। बार्थोलिन या प्रघाण ग्रन्थि (Bartholin gland) योनि के आस-पास उपस्थित एक जोड़ी ग्रन्थियाँ हैं। इनसे निकला स्राव मैथुन के समय स्नेहक का कार्य करता है। ठीक इसी प्रकार प्रकोष्ठ (Vestibule) तथा मलाशय (Anus) के मध्य स्थित एक जोड़ी पेरिनियल ग्रन्थि भी स्त्रियों में विशेष गन्ध स्राव का स्त्रावण करती है।


द्वितीयक या गौण लैंगिक लक्षण(Secondary Sexual Characters):-


किसी भी प्राणी के जनन करने योग्य हो जाने को यौवनारम्भ (Adolescent) कहते हैं। इसकी आयु पुरुषों में 15-18 वर्ष तक तथा स्त्रियों में 11-14 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में स्त्री एवं पुरुषों के लक्षणों में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव आते हैं, जोकि गौण लैंगिक लक्षणों के कारण होते हैं।

बाह्य जननाग मनुष्य में प्राथमिक जनन अंग (Primary sex organ) माने जाते है, क्योंकि इनके द्वारा पुरुषों एवं स्त्रिया में जन्म से ही विभेद किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त पुरुष और स्त्री में पाए जाने वाले वे सभी लक्षण जिनके द्वारा किसी पुरुष और स्त्री में विभेद किया जा सकता है, गौण या द्वितीयक लैंगिक लक्षण कहलाते है।

अतः गौण लैंगिक लक्षण, लैंगिक विभेद के के लक्षण है, जोकि किसी कन्तु में पैदा होने के बाद विशेषकर यौवनावस्था में प्रदर्शित होते हैं तथा नर एवं मादा द्वारा एक दूसरे को परस्पर आकर्षित करने के उपयोग में आते हैं।


 पुरुष एवं स्त्री में पाए जाने वाले लैंगिकों का विवरण निम्नलिखित है


पुरुष के द्वितीयक (गौण) लैंगिक लक्षण(Secondary Sexual Characters of Male):–


योननावस्था के साथ ही लड़कों में निम्नलिखित परिवर्तन होते है


(i) चेहरे व शरीर पर बाल उग जाते हैं।

(ii) स्वर भारी हो जाता है।

(iii) वृषण कोष तथा शिश्न के आकार में वृद्धि हो जाती है।

(iv) शुक्रजनन नलिकाओं में शुक्राणुओं का निर्माण शुरू हो जाता है। 

(v) अस्थियां व पेशियां मजबूत तथा को चौड़े हो जाते हैं। शरीर को लम्बाई बढ़ने लगती है। 

(vi) जननांगों के आस-पास एवं बगल आदि स्थानों पर बाल उग जाते हैं। तृषण से स्वाति हॉर्मोन्स (टेस्टोस्टेरॉन व एन्ड्रोस्टेरॉन) नर में सौवनावस्था को प्रेरित करते हैं।


स्त्री के द्वितीयक (गौण) लैंगिक लक्षण (Secondary Sexual Characters of Female):–


यौवनारम्भ के पश्चात् लड़कियों में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं

(i) बाह्य जननागो तथा स्तनों का विकास प्रारम्भ हो जाता है।

(ii) अण्डोत्सर्ग तथा मासिक धर्म या आतंय चक्र प्रारम्भ हो जाता है।

(ii) श्रोणि मेखला तथा नितम्ब चौड़े हो जाते है।

(iv) स्वर मधुर व तीव्र हो जाता है।

(v) बगल, जननांगों, आदि के आस-पास बाल उग जाते हैं।


मादा में पीयूष ग्रन्थि (Pituitary gland) द्वारा सावित गोनेडोट्रॉपिन हॉमोन (Gonadotropin hormone), प्रोजेस्ट्रॉन, एस्ट्रोजन, आदि हॉर्मोन्स अण्डाशय के विकास व कार्यों का नियन्त्रण करते हैं तथा मादा में यौवनावस्था को प्रेरित करते हैं।










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