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अध्याय 27 पादपों में जनन(Reproduction in Plants)

 अध्याय 27
पादपों में जनन(Reproduction in Plants):–


प्रकृति के नियमानुसार, प्रत्येक जीव कुछ निश्चित समय तक ही जीवित रह सकते हैं। जीव के जन्म से उसकी मृत्यु तक का काल, उस जीव का जीवनकाल (Lifespan) कहलाता है। अतः अपनी जाति तथा वंश की निरन्तरता को बनाए रखने हेतु यह अतिआवश्यक है, कि प्रत्येक जीव (वनस्पति या प्राणी) अपने ही समान दूसरे जीवों को जन्म दें। जीवों में होने वाली यह प्रक्रिया, जिसके अन्तर्गत जीव अपने ही समान दूसरे जीवों को जन्म देता है, जनन (Reproduction) कहलाती है। जनन जीवो की मूलभूत विशेषता है।


जनन की आवश्यकता (Necessity of Reproduction):–


किसी जाति के जीवों के लिए जनन क्यों आवश्यक है? यह अतिमहत्त्वपूर्ण प्रश्न है। किसी जाति विशेष के जीवों के लिए जन आवश्यकता निम्न बिन्दुओं से समझी जा सकती है.


(i) जनन को सबसे ज्यादा आवश्यकता और उपयोगिता किसी जाति विशेष को निरन्तरता बनाए रखने के लिए है।

 (ii) जनन द्वारा जीव अपने समान लक्षणों वाले जीव उत्पन्न कर सकते हैं।


(iii) जीवों के आनुवंशिक लक्षण उनको सन्तानों में वंशागत होते है, इसी कारण सन्ताने जनकों के समान होती है। 

(iv) एक मुख्य प्रकार के जनन (लैंगिक जनन) द्वारा सन्तानों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है, ये विभिन्नताएँ जैव-विकास का होती हैं।


(v) जातियों की उत्तरजीविता हेतु भी जनन आवश्यक है। 

जनन प्रक्रिया मुख्यतया दो प्रकार की होती है


1. अलैंगिक जनन

२. लैंगिक जनन


अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction):–

इस प्रकार के जनन में विशेष जनन कोशिकाओं (Generative cells) के बिना ही एक जनक द्वारा नई सन्तान का निर्माण होता है। इसके फलस्वरूप, जिस सन्तान का जन्म होता है, वह आनुवंशिक रूप से पूरी तरह अपने जनक के समान होती है।


अलैंगिक जनन के लक्षण (Characteristics of Asexual Reproduction):–


(i) इसमें सन्तान का एक ही जनक होता है।

(ii) इसमें नए जीव का जन्म केवल कासिक कोशिकाओं द्वारा होता है। अतः इसे कायिक प्रजनन (Vegetative reproduction) भी कहते हैं।


(iii) इस प्रकार के जनन में कोशिकाएँ समसूत्री (Mitotic) विभाजन करती है।

(iv) इस प्रकार के जनन में युग्मकों का निर्माण व निषेचन नहीं होता। 

(v) इस प्रकार के जनन में उत्पन्न आनुवंशिकी व आकारीय रूप से समरूप सन्तति को क्लोन या एक पूर्वजक (Clones) कहते हैं। अलैंगिक जनन विधि मुख्यतया एकल जीव, निम्न पादपों तथा जन्तुओं में पाई जाती है; उदाहरण-प्रोटोजोआ, कवकों तथा कुछ निम्न जीव; जैसे-प्रोटिस्टा, स्पंज, सीलेण्ट्रेटा व प्लेनेरिया, आदि।


पादपों में अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction in Plants):–


पादपों में अलैंगिक जनन निम्न प्रकार से होता है


1. विखण्डन (Fission):–


इस विधि में परिपक्व पादप विभाजित होकर दो कोशिकाओं में विभक्त हो जाता है, यह क्रिया द्विविखण्डन (Binary fission) कहलाती है। इसमें सर्वप्रथम केन्द्रक विभाजित होता है, बाद में कोशिकाद्रव्य विभाजित होता है। कभी-कभी केन्द्रक अनेक बार विभाजित होकर अनेक खण्डों में बँट जाता है, यह क्रिया बहुविखण्डन (Multiple fission) कहलाती है। यह प्रायः प्रतिकूल परिस्थितियों में होता है; उदाहरण-जीवाणु, यूग्लीना ।



2. खण्डन द्वारा (By Fragmentation):–

 इस विधि में बहुकोशिकीय जीव पूर्ण वृद्धि करके दो या अधिक खण्डों में टूट जाते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक खण्ड वृद्धि करके पूर्ण जीव बना लेता है; उदाहरण- स्पाइरोगायरा, राइजोपस, यूलोथ्रिक्स।


3. मुकुलन द्वारा (By Budding):–


इस प्रक्रिया में जनन कोशिका पर एक उभार बनता है, जो मुकुल (Bud) कहलाता है। यह मुकुल धीरे-धीरे बड़ा हो जाता है और मातृकोशिका से अलग होकर स्वतन्त्र पादप बना लेता है; उदाहरण- यीस्ट ।


यीस्ट में ये मुकुल मातृ कोशिका से अलग हुए बिना ही नए मुकुल का निर्माण करते हैं, जिससे एक ही यीस्ट कोशिका पर मुकुलों या कलिकाओं की श्रृंखला बन जाती है।



4. बीजाणुओं द्वारा (By Spores):–


एककोशिकीय पादपों में बहुविखण्डन के पश्चात् चलबीजाणुओं (Zoospores) का निर्माण होता है; उदाहरण- क्लैम्मोनासा तत्पश्चात् ये चलबीजाणु मुक्त होकर सामान्य पादप की तरह जीव्यतीत करने लगते हैं। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों में यीस्ट कोशिकाएँ।रणयुक्त बीजाणु का निर्माण करते हैं, जो अन्त: बीजाणु (Endospores) लाते हैं।


कवकों में भी इसी प्रकार के बीजाणु बनते हैं। अधिकत्रीजाणुओं की संरचना एककोशिकीय होती है तथा इनमें बाहर की तरफ वरण से सुरक्षा हेतु दृढ़ आवरण उपस्थित होता है। इनका प्रकीर्णन वायु जल द्वारा होता है; उदाहरण- म्यूकर, राइजोपस, पक्सीनिया, फर्न, आदि।



5. कायिक प्रजनन या प्रवर्धन (Vegetan Reproduction):–


कुछ पादप, जैसे- गन्ना, गुलाब या अंगूर, आदिने उगाने के लिए कायिक प्रवर्धन का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इसके हा उगाए गए पादपों में बीज की आवश्यकता नहीं होती है और बीज द्वारा उगाए पादपों की अपेक्षा पुष्प व फल कम समय में आ जाते है तथा यह पद्धति पादपों; जैसे-केला, सतरा एवं चमेली, आदि को उगाने के लिए भी उपयोगी, जो बीज उत्पन्न करने की क्षमता खो चुके होते हैं तथा कायिक प्रवर्धन का सरा लाभ यह भी है कि इस प्रकार उत्पन्न सभी पादप आनुवंशिक रूप से जनन्पादप के समान ही होते हैं।

इस प्रक्रिया में पादप का कोई भी वर्धी भाग मातृ पादप से अलग होकर नए पादप का निर्माण करता है, कायिक प्रजनन या बंधन, विभिन्न वर्षी भागों के आधार पर विभिन्न प्रकार का होता है। इन विभिन्न प्रकारों का अध्ययन हम दो शीर्षकों में कर सकते हैं, जो निम्न प्रकार है


(i) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (Natural Vegtative Reproduction):–

 इस क्रिया में प्राकृतिक रूप से पादप का कोई अंग या रूपान्तरित भाग मातृ पादप से अलग होकर नया पादप बनाता है। यह अनुकूल परिस्थितियों में सम्पन्न होता है। कायिक अंगों से जनन के आधार र प्राकृतिक कायिक जनन को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है।


(a) जड़ों द्वारा (By Roots) जिन जड़ों में भोजन संचय होता है तथा जिन जड़ों पर अपस्थानिक कलिकाएँ उपस्थित होती है। अनुकूल परिस्थितियों में ये अपस्थानिक कलिकाएँ पादप का निर्माण करती हैं; उदाहरण-शकरकन्द, सतावर पुदीना, आदि।


(b) पत्ती द्वारा (By Leaves) कुछ मांसल पर्णी (पत्तियों) में भोजन संग्रह होता है। यह पर्ण कलिकाओं का निर्माण करती है तथा ये कलिकाएँ अनुकूल परिस्थितियों में नए पादप का निर्माण करती हैं; उदाहरण- ब्रायोफिल्लम, बिगोनिया, घाव पत्ता, आदि।


(c) तनों द्वारा (By Stems) जिनकों में मौज सन्धियों पर अपस्थानिक कतिकार्य उपरि होती है। नए नए पादप के निर्माण में सहायक होती है। ये प्रकार के होते हैं


भूमिगत तने (Underground m य मोटे व मांसल हो जाते हैं और अनुकू अपस्थानिक कलिकाएँ वृद्धि करके नए-नएका निर्माण हैं; उदाहरण-आलू, अरबी, जिमीकन्द, अदरक, आदि।


अर्द्धवायवीय तने (Subaerial Stems) इन अपस्थानिक जड़े निकलकर जमीन में चली जाती है के बाद नए पादप का निर्माण करती है, उदाहरण- पवि, जलकुम्भी, आदि।


वायवीय तने (Aerial stems) इन तनी में रूप की प प्रकलिकाओं द्वारा जोकि भोजन संग्रह करने वाली विशेष संरचता है। अनुकूल परिस्थितियों में ये मातृ पादप से अलग होकर नए पद का निर्माण करती है; उदाहरण-खट्टी-बूटी, लहसुन, अननस, आदि।



(ii) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन Artificial Vegetative Propagation


मानव द्वारा पादपों में कृत्रिम ढंग से किए गए कायिक जनन को कृत्रिम कायिक जनन या प्रवर्धन कहते हैं।


पादपों में कृत्रिम कायिक जनन की विधियों निम्नलिखित हैं।


(a) कलम लगाना (By Cutting) इस विधि में अच्छे विकसित परिपक्व पादपों की शाखाओं को काटकर भूमि में दबा दिया जाता है। इन शाखाओं पर कुछ कक्षस्थ कलिकाओं का होना आवश्यक है। शाखा के भूमिगत भाग की पर्व सन्धियों से अपस्थानिक जड़े निकलती हैं। इनकी कक्षस्थ कलिकाएँ वृद्धि करके एक नए पादप का निर्माण करती हैं; उदाहरण- गुलाब, गन्ना, गुड़हल, आदि।



(b) दाब लगाना (By Layering) वह पादप, जिनकी शाखाएँ कठोर होती हैं, सरलता से कलम के रूप में प्रवर्धित नहीं हो पाते हैं। इसलिए उपरोक्त पादपों में, पादप की शाखा के कुछ भाग को छीलकर शाखा को भूमि में दबा देते हैं। कुछ समय पश्चात्, मृदा में दबे हुए भाग से अपस्थानिक जड़ें निकल आती हैं। अब इस अवस्था में शाखा को जनक पादप से काटकर अलग करके इसे मिट्टी में रोप देते हैं; उदाहरण- नींबू, चमेली, अंगूर, आदि ।



(c) गूटी लगाना/बाँधना (By Gootee) पुराने वृक्षों की शाखाएँ मोटी तथा मजबूत होती हैं इसलिए इनकी शाखाओं को नीचे झुकाना या रोके रखना आसान नहीं होता है। अतः इस विधि में पादप की एक शाखा को छीलकर उस पर खादयुक्त मिट्टी लगाकर टाट लपेट देते हैं।

मिट्टी को नम बनाए रखने के लिए एक घड़े में छेद करके इसके ऊपर लटका देते हैं। खादयुक्त मिट्टी के स्थान पर मॉस भी लपेटा जा सकता है। तत्पश्चात् छेद से रस्सी का टुकड़ा निकालकर गूटी से लपेट दिया जाता है। कुछ दिनों में इसमें अपस्थानिक जड़े विकसित हो जाती हैं। इस शाखा को गूटी के निचले भाग से अलग करके मिट्टी में रोप देते हैं; -अमरुद सन्तरा आदि।



(d) पैबन्द लगाना या रोपण (By Grafting) इसमें निम्न या अशुद्ध जाति के पादप पर उच्च या शुद्ध किस्म के पादप को रोपित किया जाता है। यह निम्न विधियाँ द्वारा होता है


• कशारोपण (Whip Grafting) इस विधि में निम्न किस्म के जाति के तने को तिरछा काट लिया जाता है, जिसे स्कन्ध (Stock) कहते हैं तथा उच्च किस्म की जाति के पादप की एक शाखा या कलम (श्यान) को इसी प्रकार तिरछी काटकर मिलान करके इसके साथ जोड़ दिया जाता है। इसके पश्चात् इस पूर्ण संरचना को रस्सी, आदि से बाँध दिया जाता है। साथ ही दोनों के सन्धि स्थल पर मोम पिघलाकर लेप कर दिया जाता है। कुछ दिनों पश्चात् स्कन्ध तथा कलम जुड़ जाते हैं।



स्फान रोपण (Wedge Grafting) इस विधि स्कन्ध में 'V' आकार की खांच बनाई जाती है तथा श्यान भी इसमें फिट करने के अनुरूप ही काटी जाती है। शेष विधि कशारोपण के समान होती है।



कलिका रोपण (Bud Grafting) इसमें साधारण जाति के वृक्ष के तने पर छाल की गहराई तक तिरछी काट लगाते हैं। इस काट में उच्च जाति की कलिका को सावधानीपूर्वक रोप दिया जाता है तथा चारों ओर से डोरी से बांधकर उस पर मोम पिघलाकर लेप चढ़ा दिया जाता है, इसे चश्मा चढ़ाना भी कहा जाता है।



(e) शाखा बन्धन (Inarching) इस विधि में निम्न जाति के सदर को जाति के यादव के पास उनकी शाखाओं के काष्टीय भाग को कर एक-दूसरे से चिपकाकर इस कथन पर लेप करके रस्ते से दिया जाता है। कुछ समय पश्चात् दोनों पादप जुड़ जाते हैं गमले में लगे पादप के शीर्ष को तथा कलम को भी म कर देते हैं।



(f) ऊतक संवर्धन (Tissue Culture) ऊतक व अंगी (पादप टुकड़े) प्रयोगशाला में की उपस्थिति में रोगहीन पादपों में विकास करना ऊतक संवर्धन कहलाता है। इस तकनीक को अन्तः पात्र (Is vitro) सूक्ष्म प्रवर्धन (Micropropagation) भी कहते हैं, क्योंकि यह प्रयोगशाला में होती है तथा फिर पादपों को प्रयोगशाला से मृदा में व्यवस्थित करते हैं। इस विधि में, जिस पादप के ऊतक को संवर्धित करना होता है, उस पादप की कोशिका को पोषक माध्यम में रख दिया जाता है। इस संवर्धन माध्यम में अकार्बनिक लवण, कुछ विटामिन्स तथा वृद्धि नियन्त्रक पादप हॉर्मोन (साइटोकाइनिन) मिलाते हैं।

ऊतक की कोशिकाएँ अनियमित रूप से विभाजन कर कैलस (Callus) का निर्माण करती है। कैलस की कोशिकाएं कलिकाओं का निर्माण करती हैं, जो वृद्धि करके नए पादप का निर्माण करते हैं।

यह तकनीक सजावट वाले पादप, जैसे-कार्निशन, ऑर्किड, डहेलिया, आदि के उत्पादन हेतु अधिक प्रयोग की जाती है। ऊतक संवर्धन तकनीक के निम्न लाभ हैं।


• इससे रोगहीन वातावरण में एकल जनक द्वारा अत्यधिक मात्रा में पादप विकसित किए जाते हैं।


• इस विधि द्वारा पादपों को विभिन्न रोगों से बचाया जा सकता है। • इस विधि द्वारा सजावट योग्य पादपों का जल्दी विकास सम्भव है।


• इस विधि में वातावरण का पादप वृद्धि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।


कायिक जनन के लाभ (Advantages of Vegetative Propagation):–


(i) इस विधि द्वारा कम समय में पादप विकसित किए जा सकते हैं। (ii) इस विधि से उत्पन्न नए पादप, मातृ पादप के समान होते हैं। इनमें विभिन्नताएँ नहीं होती हैं।


(iii) कायिक जनन द्वारा अनुपयोगी जंगली प्रजातियों को उपयोगी पादपों में परिवर्तित किया जा सकता है।


(iv) कायिक जनन द्वारा विकसित पादप बाह्य वातावरण से अप्रभावित रहते हैं।


(v) अनेक पादपों में सामान्यतया कायिक जनन ही सम्भव होता है। इसमें लिगी. या लैंगिक जनन सम्भव नहीं होता है; जैसे-केला, बाँस, इलायची, आदि।(l


(vi) पादयों के विशेष लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी बने रहते हैं।


कायिक जनन की हानियाँ (Disadvantages of Vegetative Propagation):–


 (i) इस प्रकार के जनन से पादप में उनके लक्षणों को बदला नहीं जा सकता। 

(ii) कायिक जनन से कुछ पीढ़ियों के बाद पादपों की प्रजनन क्षमता कम ही जाती है।


(iii) इस जनन के कारण नई जातियाँ उत्पन्न नहीं हो पाती है।


पादपों में अलैंगिक जनन के लाभ(Advantages of Asexual Reproduction in Plants):–


अलैंगिक जनन में एकल जनक होने के कारण प्रजनन आसान हो जाता है, जिन पादपों में बीज नहीं बन पाते वे इस विधि द्वारा अपनी ही जैसी सन्तति की पैदा कर सकते हैं। जनकों को युग्मक बनने में अपनी ऊर्जा व्यय नहीं करनी पड़ती। अलैंगिक जनन कई विधियों द्वारा हो सकता है। इसी कारण अलग-अलग पादपों में यह अलग-अलग विधि द्वारा सम्पन्न होता है। किसी एक ऐसे स्थल पर जहाँ पर परागण या लैंगिक जनन नहीं हो पाता। अलैंगिक जनन सफलतापूर्वक सन्तति उत्पन्न कर सकता है।


लैंगिक जनन (Sexual Reproduction):–


इस प्रकार के जनन में, विशेष जनन कोशिकाओं द्वारा दो जनकों (अधिकतर माता एवं पिता) से नई सन्तान का निर्माण होता है। इस प्रकार के जनन में विशेष जनन कोशिकाएँ दो प्रकार के युग्मक (Gametes) बनाती है, जो स्वभावतया होते हैं। इन युग्मकों के मिलन एक दूसरे के विपरीत होते (निषेचन Fertilisation) के फलस्वरूप नई सन्तान की उत्पत्ति होती है। ये युग्मक अपने व्यवहार के अनुरूप नर एवं मादा में वर्गीकृत होते हैं। इनका निर्माण एक ही जनक या दो अलग-अलग जनकों में हो सकता है, जब इनका निर्माण अलग-अलग जनकों में होता है, तो उन्हें अलग-अलग लिंग का मानते हैं तथा नर युग्मक वाले जनक को पिता (पुरुष-Male) एवं मादा युग्मक वाले जनक को माता (स्त्री-Female) कहते हैं।


नोट: समान युग्मकों के संयुग्मन को समयुग्मन (Isogamy) कहते हैं; उदाहरण- जीवाणु तथा असमान युग्मकों के संयुग्मन को असमयुग्मन (Anisogamy) कहते हैं; उदाहरण- सभी उच्च प्राणी।


लैंगिक जनन के लक्षण(Characteristics of Sexual Reproduction):–


(i) इस विधि में मुख्यतया पूरक लिंग जनक स्त्री व पुरुष सम्मिलित होते हैं।


(ii) इन जनकों में अर्द्धसूत्री (Meiotic) विभाजन के फलस्वरूप नर व मादा युग्मको का निर्माण होता है। (iii) इसके पश्चात् मादा व नर युग्मकों का निषेचन होता है, जिसके फलस्वरूप युग्मनज (Zygote) का निर्माण होता है।


(iv) लैंगिक जनन से उत्पन्न सन्तति, अपने माता व पिता के पूर्णतया समरूप नहीं होती, अपितु अधिकतर लक्षण समान होते हैं।


(v) लैंगिक जनन अधिकतर उच्च पादपों एवं जन्तुओं में होता है।


अलैंगिक एवं लैंगिक जनन में अन्तर:–


अलैंगिक लैंगिक
इसके द्वारा शरीर का कोई भाग या इससे बनी हुई विशिष्ट संरचनाएँ नए जीव का निर्माण कर देती है। इस प्रकार के जनन में नर एवं मादा युग्मक मिलकर नए जीव का विकास करते हैं।
अलैंगिक जनन में विखण्डन, मुकुलन, द्विविभाजन, बीजाणुजनन आदि विधियाँ उपयोग में आती हैं। जन्तुओं में नर तथा मादा के युग्मको को क्रमशः शुक्राणु एवं अण्डाणु कहते हैं।
यह जनन सामान्यतया निम्न श्रेणी के जन्तुओं में उपस्थित होता है, किन्तु उच्च श्रेणी के जन्तुओं में अनुपस्थित होता है। यह जनन सामान्यतया निम्न श्रेणी के जन्तुओं में अनुपस्थित होता है, किन्तु उच्च श्रेणी के जन्तुओं में उपस्थित होता है।


पुष्पीय पादपों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Flowering Plants):–


उच्च पादपों में लैंगिक जनन की प्रक्रिया के लिए विशेष संरचनाएँ पाई जाती हैं. जिन्हें पुष्प कहते हैं। इन पुष्पों के विशेष अंगों में जनन कोशिकाएँ पाई जाती है। जिनसे युग्मनज बनकर लैंगिक जनन की प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं। पादपों में लैंगिक जनन की प्रक्रिया चार चरणों में सम्पन्न होती है, परन्तु यह चार चरण जानने से पूर्व पुष्प की संरचना का अध्ययन अति आवश्यक है।


पुष्प की संरचना (Structure of Flower):–


पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन के मुख्य अंग पुष्प होते हैं। अधिकांश पादपों में पुष्य चार प्रकार की रूपान्तरित पत्तियों की संरचना है। पुष्प के विभिन्न भाग बाह्यदल (Calyx), दल (Corolla), पुंकेसर (Stamen) एवं स्त्रीकेसर (Pistil) होते हैं। इसमें से बाह्य दलपुंज तथा दलपुंज पुष्प के सहायक अंग तथा पुमंग एवं जायांग आवश्यक अंग कहलाते हैं। ये भाग पुष्पवृन्त के फूले हुए सिरे पर चक्रों के रूप में बाहर से अन्दर की ओर निम्न प्रकार विन्यासित रहते हैं।


बाह्य दलपुंज → दलपुँज → पुमंग (पुंकेसर)→ जायांग (स्त्रीकेसर) 


पुष्प के नर जनन अंग को पुंकेसर और मादा जनन अंग को स्त्रीकेसर कहते हैं, जिनमें जनन कोशिकाएँ होती हैं।


नोट: बाह्य दलपुंज तथा दलपुंज पुष्प के सहायक अंग तथा पुमंग एवं जायांग आवश्यक अंग कहलाते हैं।



जननांगों के आधार पर पुष्प दो प्रकार के होते हैं


(i) एकलिंगी पुष्प (Unisexial Flower) जब पुष्प में पुकेसर या स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है, तो पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं; जैसे-पपीता, तरबूज, आदि।


(ii) उभयलिंगी पुष्प (Bisexual Flower) जब पुष्प में पुकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो पुष्प उभयलिंगी कहलाते हैं; जैसे-गुड़हल, सरसों, आदि।


वह पुष्प, जिनमें चारों प्रकार के चक्र पाए जाते हैं. पूर्ण पुष्प (Complete flower) तथा जिनमें एक या एक से अधिक चक्र अनुपस्थित होते हैं, उन्हें अपूर्ण पुष्प (Incomplete flower) कहते है।


पुमंग अथवा पुकेसर एवं जायांग अथवा स्त्रीकेसर में अन्तर:–


पुमंग अथवा पुंकेसर जायांग अथवा स्त्रीकेसर
यह नर जनन अंग है। यह मादा जनन अंग है।
इसकी प्रत्येक इकाई को पुंकेसर कहते हैं। इसकी प्रत्येक इकाई की अण्डप कहते हैं।
पुंकेसर का अगला फूला हुआ भाग परागकोष कहलाता है, जिसमें नर युग्मक या परागकण बनते हैं। अण्डप का निचला फूला हुआ भाग अण्डाशय कहलाता है, जिसमें बीजाण्ड होता है। बीजाण्ड में मादा युग्मक या अण्ड बनता है।



पादपों में लैंगिक जनन के चरण(Steps of Sexual Reproduction in Plants):–


पादपों में होने वाले लैंगिक जनन के चारों चरण निम्न है


(i) युग्मकजनन (Gametogenesis) अर्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित युग्मकों का निर्माण ही युग्मकजनन कहलाता है। नर कोशिकाएँ या परागकण के निर्माण को नर युग्मक जनन कहते हैं। अण्ड के निर्माण को मादा युग्मक जनन कहते हैं।


(ii) परागण (Pollination) परागकणों का वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया।


(iii) निषेचन (Pertilisation) नर तथा मादा युग्मक केन्द्रकों का संलयन। 

(iv) बीज तथा फलों का निर्माण (Development of Seeds and Fruits)


युग्मकजनन (Gametogenesis):–

 इसमें मुख्यतया दो क्रिया होती है


(i) नर युग्मकोद्भिद् अथवा परागकण का बनाना (Formation of Male Gametophyte or Pollen Grain) पुंकेसर पर दो परागकोष उपस्थित होते हैं। इनके दो-दो परागपुटों में परागकणों का निर्माण विशेष लघुबीजाणु मातृ कोशिका (Microspore mother cell) से होता है। यह कोशिका विभाजन के द्वारा एक साथ चार कोशिकाओं का निर्माण करती है।

 चार कोशिकाओं का यह समूह चतुष्क (Tetrad) कहलाता है तथा चतुष्क की प्रत्येक कोशिका एक लघुबीजाणु बनाती है, जो बाद में परागकण के रूप में बदल जाती है। परागकण परागपुर में बिखरे रहते हैं। तथा यह प्रायः दो आवरणों से ढका होता है।


परागकण की संरचना (Structure of Pollen Grain):–


परागकण या लघु बीजाणु (Pollen grain or Microspore) वास्तविकता में पादप का नर युग्मकोद्भिद (Male gametophyte) होता है। यह दो आवरणों से ढकी हुई एक कोशिका सदृश्य संरचना है। परागपुट में ही इसका एकमात्र केन्द्रक साधारण विभाजन द्वारा विभाजित होकर एक नलिका (Tube nucleus) एवं दूसरा जनन केन्द्रक (Generative nucleus) बनाता है। अब जनन केन्द्रक और इसके चारों तरफ के जीवद्रव्य को जनन कोशिका (Generative cell) कहते हैं।


परागकण में जनन कोशिका एवं नलिका केन्द्रक के बाहर उपस्थित दो आवरण निम्न प्रकार हैं


(a) बाह्यचोल (Exine) यह अत्यन्त कठोर, खुरदरा एवं क्युटिन युक्त पदार्थों का बना हुआ आवरण है। विभिन्न पादपों में परागण के आधार पर यह आवरण भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुकूलित होता है। बाह्यचोल विभिन्न प्रकार से अनुकूलित होने के साथ-साथ एक समानता भी रखता है, जिसके फलस्वरूप सभी परागकणों के बाह्यचोल में एक या एक से अधिक जनन छिद्र (Germ pores) होते हैं, जिनसे परागण (Pollination) के पश्चात् पराग नलिका (Pollen tube) बाहर निकलती है।


(b) अन्तःचोल (Intine) यह बाह्यचोल के भीतर जीवद्रव्य एवं केन्द्रक अर्थात् जनन कोशिका के बाहर का अत्यन्त पतली भित्ति सदृश आवरण होता है, जोकि पराग नलिका बनने के लिए उत्तरदाई होता है। उक्त पूर्ण संरचना को नीचे दिए गए चित्रों में देख सकते हैं



(ii) मादा युग्मकजनन या मादा युग्मकोद्भिद का बनना (Formation of Female Gametophyte or Megagametogenesis) पुष्प के स्त्रीकेसर में अण्डाशय नामक भाग होता है। इसके आधारीय भाग में बीजाण्ड (Ovules) जरायु (Placenta) नामक संरचना से लगे होते हैं। बीजाण्ड के भीतर उपस्थित भ्रूणकोष नामक संरचना को मादा युग्मकोद्भिद की संज्ञा दी जाती है।


बीजाण्ड की संरचना (Structure of Ovule):–


पादपों में प्रत्येक बीजाण्ड, बीजाण्डासन से एक पतले व छोटे बीजाण्डवृन्त (Funicle) द्वारा जुड़ा रहता है, जिस स्थान पर बीजाण्ड, बीजाण्ड वृत्त से जुड़ता है, उसे नाभिका (Hilum) कहते हैं। बीजाण्ड के भीतर का अधिकांश भाग बीजाण्डकाय (Nucellus) से बना होता है, जिसके चारों और बाह्य अध्यावरण तथा अन्त: अध्यावरण पाए जाते हैं। इन पर्तों के मध्य नीचे की ओर एक छिद्र होता है, जिसे बीजाण्डद्वार (Micropyle) कहते हैं। बीजाण्ड का आधारीय भाग निभाग (Chalaza) कहलाता है।

बीजाण्डकाय में अन्दर की ओर भ्रूणकोष (Embryo sac) स्थित होता है। भ्रूणकोष में बीजाण्डद्वार की ओर तीन कोशिकाओं का समूह पाया जाता है। इसे अण्ड समुच्चय (Egg apparatus) कहते हैं।



अण्ड समुच्चय के मध्य में बड़ी अण्डकोशिका (Egg cell) तथा इसके दोनों ओर एक-एक छोटी सहायक कोशिकाएँ (Synergid cells) होती है। निभाग की ओर भी तीन कोशिकाएँ स्थित होती हैं। इन कोशिकाओं को प्रतिमुख कोशिकाएँ (Antipodal cells) कहते हैं। भ्रूणकोष के मध्य दो कोशिकाएँ पाई। जाती हैं। इन्हें ध्रुवीय कोशिकाएँ (Polar cells) कहते हैं। कभी-कभी दोनों ध्रुवीय कोशिकाएँ मिलकर द्वितीयक केन्द्रक (Secondary nucleus) का निर्माण भी करती हैं।



परागण (Pollination):–


किसी के परागकणों का उसी पुष्प अथवा उसी जाति के किसी अन्य पुष्प के 'पुष्प वर्तिका पर पहुँचने की क्रिया को 'परागण' कहते हैं। परागण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है


(i) स्व-परागण (Self-pollination) किसी पादप के पुष्प के उसी पुष्प के वर्तिकाग्र (Stigma) पर या उसी पादप के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर अथवा कायिक जनन द्वारा तैयार किए गए उसी जाति के किसी अन्य पादप के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने को 'स्व-परागण' कहते हैं। परागकण


स्व-परागण के लाभ (Advantages of Self-pollination):–


(a) इससे पीढ़ी की शुद्धता बनी रहती है। (b) इसमें अधिक परागकणों की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि परागकण विभिन्न माध्यमों में नष्ट नहीं होते।


(c) इसमें अन्य किसी माध्यम, जैसे-सुगन्ध, मधु, आवश्यकता नहीं होती है।


स्व- परागण की हानियाँ(Disadvantages of Self-pollination):–


(a) इससे उत्पन्न बीज संख्या में कम व छोटे होते हैं। (b) बीजों को पकने में अधिक समय लगता है।

(c) नई तथा स्वस्थ किस्म का निर्माण नहीं होता है।


(ii) पर-परागण (Cross-pollination) जब एक पुष्प के परागकण लिंगी जनन द्वारा उत्पन्न उसी जाति के अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर विभिन्न माध्यमों से पहुँचते हैं, तो इसे पर-परागण कहते हैं। एकलिंगी पुष्प पपीता, मक्का में पर-परागण पाया जाता है। पर-परागण कीटों द्वारा, वायु द्वारा, जल द्वारा और जन्तुओं के माध्यम से होता है।


पर परागण की विधियाँ (Methods of Cross-pollination): - 

पादपों में पर-परागण निम्न प्रकार से होता है


(a) कीटों द्वारा परागण ( Entomophily) कीटों को आकर्षित करने के लिए पादपों में विशेष युक्तियाँ; जैसे-पुष्पों का रंग, सुगन्ध, मकरन्द, आदि की उपस्थिति अपनाई जाती हैं। कीट परागित पुष्प बड़े ही आकर्षण एवं मकरन्द युक्त होते हैं। इन पुष्पों के वर्तिकाग्र प्रायः चिपचिपे होते हैं; उदाहरण-अंजीर, आक, साल्विया, पीपल आदि।



(b) वायु द्वारा परागण (Anemophily) अनेक पादपों में वायु द्वारा परागण होता है। इसके लिए अनेक युक्तियाँ पाई जाती है; जैसे-पुष्प प्रायः छोटे और समूह में लगे होते हैं। इन पुष्पों में सुगन्ध, मकरन्द और रंग का अभाव होता है। इनकी वर्तिकाम खुरदरे एवं चिपचिपे होते हैं। परागकण हल्के, जलरोधी और शुष्क होते है तथा अत्यधिक मात्रा में बनते हैं, क्योंकि वायु के माध्यम से इनकी हानि बहुत अधिक होती है; उदाहरण-गेहूँ, मक्का, ज्वार, आदि।


(c) जल द्वारा परागण (Hydrophily) यह परागण जल में उगने वाले पादपों में पाया जाता है। इन पादपों में पुष्प जल के ऊपर खिलते हैं जैसे-कमल, जललिली, आदि जल परागण के लिए पुष्पों, परागकणों, वर्तिका, वर्तिकाम, आदि में अनेक अनुकूलन पाए, जाते हैं। पुष्प रंगहीन, मकरन्दन और गन्धहीन होते हैं। परागकण हल्के होते हैं, इनका घनत्व अधिक अर्थात् ये संख्या में ज्यादा होते हैं।


इससे परागकण जल सतह पर तैरते हुए मादा पुष्प के सम्पर्क में आते हैं। तत्पश्चात् परागकण वर्तिका द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं; उदाहरण- वैलिस्नेरिया, हाइड्रिला, सिरेटोफिल्लम, आदि में।


(d) जन्तु परागण (Zoophily) कुछ पादपों में परागण घांधी, पक्षियों, चमगादड़, आदि की सहायता से होता है; उदाहरण-सेमल, कदम्ब, बिगोनिया, आदि।


पर- परागण के लाभ (Advantages of Cross-pollination):–


(a) पर परागण के फलस्वरूप आनुवंशिक पुनर्योजन होता है, जिसके कारण सन्तति में लाभदायक लक्षण विकसित होते हैं।

(b) पर परागण से नई जातियाँ उत्पन्न होती है।

(c) पर परागण के फलस्वरूप बने बीज संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं।


(d) कृत्रिम पर परागण के फलस्वरूप रोग-प्रतिरोधी प्रजातियाँ विकसित होती हैं, जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है।


परपरागण की हानियाँ (Disadvantages of Cross-pollination):–

 (a) परागकण अधिक संख्या में बनते हैं और व्यर्थ होते हैं।

(b) पादपों को परागकण, गन्ध और मकरन्द बनाने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है।

(c) पर परागण के लिए पादपों को विभिन्न युक्तियों; जैसे-कीट, वायु, जल, पक्षी, आदि पर निर्भर रहना होता है।

(d) पर परागण के फलस्वरूप प्रजाति के पैतृक लक्षणों में भिन्नता आ जाती है।


स्व-परागण एवं पर परागण में अन्तर:–


स्व-परागण परपरागण
यह एक ही पुष्प या एक ही पादप के दो पुष्पों में अथवा कायिक जनन द्वारा तैयार अन्य पादप के पुष्पों में होता है। यह एक ही जाति के लैंगिक प्रजनन द्वारा तैयार दो भिन्न पादपों के पुष्पों के मध्य होता है।
इसमें पुष्प का द्विलिंगी होना आवश्यक है। पुष्प द्विलिंगी अथवा एकलिंगी हो सकते हैं। नर व मादा पुष्प अलग-अलग पादपों पर भी हो सकते हैं।
इसमें बाह्य माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें परागकणों को अन्य पुष्प के वर्तिका पर पहुंचने के लिए बाह्य माध्यम (जल, वायु, कीट, पक्षी, आदि) की आवश्यकता होती है।
पुष्पों में समकाल परिपक्वता पाई जाती है अर्थात् परागकोष एवं वर्तिका समान समय में परिपक्व होते हैं; उदाहरण- सदाबहार, मूंगफली । पुष्पों में भिन्नकाल परिपक्वता पाई जाती है अर्थात् पुष्प का परागकोष तथा वर्तिकाय अलग-अलग समय पर परिपक्व होते हैं; उदाहरण- सूरजमुखी, गेंदा




परागकण का अंकुरण (Germination of Pollen Grain):–


वर्तिकाय (Stigma) से परागण के समय एक तरल पदार्थ स्रावित होता है, जिसमें प्राय: शर्करा या मैलिक अम्ल (Maleic acid) जैसे रसायन पाए जाते हैं। इन तरल पदार्थों का अवशोषण करके परागकण फूल जाते हैं। परिणामस्वरूप अन्तःचोल (Intine) जनन छिद्रों से पराग नलिका के रूप में बाहर निकल आती है। परागकण की जनन कोशिका के दोनों केन्द्रक अर्थात् जनन एवं अध केन्द्रक पराग नलिका बनने के बाद उसकी तरफ जाना आरम्भ कर देते हैं और शीघ्र ही उसके अन्दर पहुँच जाते हैं।



पराग नलिका वृद्धि करके वर्तिकाग्र एवं वर्तिका से होती हुई अण्डाशय में स्थित बीजाण्ड में प्रवेश कर जाती है। पराग नलिका का जनन केन्द्रक सूत्री विभाजन द्वारा दो नर युग्मकों का निर्माण करता है। अतः पराग नलिका का मुख्य कार्य इन नर युग्मकों को बीजाण्ड तक पहुंचाना है, जिसके फलस्वरूप निषेचन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है।


निषेचन (Fertilisation):–

 पराग नलिका बीजाण्ड में प्रवेश कर नर युग्मकों को मुक्त कर देती है। एक नर युग्मक अग्र कोशिका से संलयित होकर द्विगुणित युग्मनज (Zygote) का निर्माण करता है। तत्पश्चात् यह द्विगुणित युग्मनज वृद्धि और विभाजन के फलस्वरूप भ्रूण का निर्माण करता है।




द्विनिषेचन एवं त्रिक संलयन(Double Fertilisation and Triple Fusion):–

निषेचन के दौरान पराग नलिका का बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार द्वारा प्रवेश होता है। यह पराग नलिका दोनों नर युग्मकों को मुक्त कर देती है। इनमें से एक नर युग्मक (Male gamate) अण्ड कोशिका से संलयित होकर युग्मनज बनाता है। इसे सत्य निषेचन (True fertilisation) कहते हैं तथा दूसरा नर युग्मक द्वितीयक केन्द्रक (2n) को निषेचित करता है, जिससे त्रिगुणित भूणपोष केन्द्रक (3n) बनता है। इस प्रक्रिया को त्रिक संलयन (Fussion) कहते हैं, क्योंकि इसमें तीन अगुणित (Haploid) केन्द्रकों का सलयन होता है। इस प्रकार आवृतबीजी पादपों में दोहरा निषेचन तथा त्रिक संलयन (Triple fusion) दो अतिमहत्त्वपूर्ण प्रक्रियाएँ हैं। निषेचन की पूर्ण प्रक्रिया को नीचे दिए गए रेखाचित्र से समझ सकते हैं।



परागण एवं निषेचन में अन्तर:–


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निषेचन के पश्चात् होने वाले परिवर्तन:–

(i) बाह्यदल (Calyx) प्राय: मुरझाकर गिर जाते है, परन्तु कई पादपों में विरलग्न होते हैं; उदाहरण- टमाटर, आदि में।


(ii) दल (Petal) पुंकेसर, वर्तिकाय, वर्तिका मुरझाकर गिर जाते हैं।।


(iii) अण्डाशयअण्डाशय भित्ति (Ovule) अण्डाशय फल में तथा अण्डाशय भित्ति फल भित्ति में बदल जाती है।


(iv) बीजाण्ड (Ovule) बीज का निर्माण करता है। 

(a) अण्डद्वार (Chainza) बीजद्वार बनाता है।

(b) बीजाण्डकाय (Nucellus) नष्ट हो जाता है।

(c) भ्रूणकोष (Embryo sac)


• अण्डकोशिका - भ्रूण बनाती है। 

• सहायक कोशिकाएँ- नष्ट हो जाती हैं।

• प्रतिमुख कोशिकाएँ- नष्ट हो जाती हैं।

• द्वितीयक केन्द्रक-भ्रूणपोष बनाता है, जो भ्रूण के परिवर्धन के। समय भ्रूण के पोषण के काम आता है। धूणपोष के कारण भ्रूण का उचित परिवर्धन होता है तथा अच्छे व स्वस्थ बोज बनते हैं।


फल तथा बीज का निर्माण (Development of Fruit and Seed):–


निषेचन के बाद अण्डाशय (Ovary) से फल और बीजाण्डों से फल के अन्दर के बीज बनते हैं। परिपक्व अण्डाशय से सत्य फल बनता है। यदि अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प के अन्य भाग भी फल निर्माण में भाग लेते हैं, तो इस प्रकार से बनने वाले फल कूटफल (False fruit) कहलाते हैं; उदाहरण- सेब, अनन्नास, आदि ।


बीजाण्ड में भ्रूणपोष (Endosperm ) तथा भ्रूण के विकास के साथ-साथ अध्यावरण सूखकर सख्त हो जाते हैं और बीज कवच बनाते हैं। बीजाण्डकाय (Nucellus) समाप्त हो जाता है, लेकिन कुछ बीजों में यह एक पतली पर्त के रूप में शेष बचा रहता है, जिसे परिभ्रूणपोष (Perisperm) कहते हैं। बीज दो प्रकार के होते हैं


(i) अभ्रूणपोषी बीज (Non-endospermic Seeds) इन बीजों में भ्रूणपोष अनुपस्थित होता है, क्योंकि यह वृद्धि करते हुए बीजाण्ड द्वारा पूर्णतया उपयोग में ले लिया जाता है।  इनमें भोजन का संग्रह बीजपत्रों में होने से ये मोटे हो जाते हैं, उदाहरण- चना, मटर, दालें तथा सेम।


(ii) भ्रूणपोषी बीज (Endorpermic Seeds)  इन बीजों में भ्रूणपोष में संग्रहित रहता है तथा बीजपत्र पतले होते हैं। इनकी कोशिकाएँ (3n) होती है उदाहरण – मक्का, गेहूं, अरण्डी।


बीजों का अंकुरण (Germination of Seed):–


बीज के अंदर स्थित भ्रूण के प्रसुप्तावस्था से सक्रिय अवस्था में आने तथा दाद को जन्म देने की प्रक्रिया को अंकुरण कहते हैं। बीका जल उचित साप, वायु जैसी अनुकुल परिस्थितियों के मिलने पर ही


अंकुरण के प्रकार (Types of Germination):–


बीज का अंकुरण मुख्य रूप से निम्नलिखित दो प्रकार का होता है 


(i) भूम्युपरिक (Epigenal) इस प्रकार के अंकुरण में बीजपत्र भूमि के बाहर निकल आते हैं; उदाहरण-सेम, अरण्डी में)



(i) अधोभूमिक (Hypogeal) जब बीजपत्र अंकुरण के समय भूमि अन्दर ही रह जाते हैं, केवल प्रांकुर ही भूमि के बाहर उदाहरण बना, मक्का मे

भ्रूण एवं बीज में अन्तर:–


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पादपों में लैंगिक जनन के लाभ(Advantages of Sexual Reproduction in Plants):–


लैंगिक जनन में जनक दो विपरीत लिंगों के होते हैं, जो युग्मक (नर एवं मादा) बनाते हैं। इनके निषेचन से नए जीव उत्पन्न होते हैं। नर व मादा में युग्मकजनन (Gametogenesis) के द्वारा अर्द्धसूत्री विभाजन में आनुवंशिक पदार्थ का भी आदान-प्रदान होने से युग्मकों में आनुवंशिक भिन्नता आ जाती है। निषेचन के पश्चात् लैंगिक जनन से उत्पन्न सन्तति, अपने जनकों से थोड़ी भिन्न होती है और यही जैव विकास का आधार बनती है।


नोट: 

• कभी- कभी पादप के जीवन चक्र में युग्मक संलयन नहीं होता तथा इनकी . अनुपस्थिति में नए पादप का निर्माण होता है. इस क्रिया को असंगजनन (Apomixis) कहते हैं।


• यदि भ्रूणकोष के अण्ड से, नर युग्मक के संयोजन के बिना भ्रूण का विकास हो जाए, तो उसे अनिषेकजनन (Parthenogenesis) कहते हैं।


• एक बीजाण्ड या बीज में से एक से अधिक भूणों का उत्पन्न होना, बहुभ्रूणता (Polyembryony) कहलाता है।







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