अध्याय 23जीवन की प्रक्रियाएँ (Processes of Life):–
जीवधारियों को जटिल संरचना के अनुरूप ही उनके जीवित रहने की प्रक्रिया भी अत्यधिक जटिल होती है। में अगर हम सजीव और निर्जीव के बीच के सबसे महत्वपूर्ण मूलभूत अन्तर को समझना चाहे तो यह अन्तर प्रक्रियाओं से सम्बन्धित है अर्थात् इन प्रक्रियाओं की अज से सम्बद्धता एवं सजीवों में उपस्थिति तथा निरोधों में अनुपस्थिति इनके महत्व को अपने-आप दर्शाता है।
कोई भी जटिलतम जैविक संरचना अपने निम्नतम स्तर पर अणुओं की ही बनी होती है। दूसरे शब्दों में, जीवधारियों में जीवन का चलायमान रहना, शरीर की वृद्धि, मरम्मत, अनुरक्षण, आदि के लिए विभिन्न अणुओं की ही आवश्यकत होती है। साथ ही इन प्रक्रियाओं के सम्पन्न होने के लिए इनमें भाग लेने वाले अणुओं का गतिशील होना भी जरुरी है। अगर दार्शनिक नजरिये से अधिक स्तर पर इन प्रक्रियाओं को देखें, तो आपको इनमें सिर्फ अणुओं का बनना (संश्लेषण) और उनका टूटना (बिखण्डन) ही नजर आएगा।
अत: हम कह सकते हैं, कि सभी जीवधारियों में उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कुछ संश्लेषणात्मक एवं विखण्डनात्मक क्रियाएं सदैव चलती रहती है। ये सभी प्रक्रियाएँ, जो जीव को जीवित बनाए रखने में सक्षम होती है. उपापचयी या जैविक या जीवन प्रक्रियाएँ (Metabolic or Life processes) कहलाती है;
जैसे-पोषण, वसन उत्सर्जन, परिवहन, आदि।
जीवों में होने वाली समस्त उपापचयकाओं को निम्नलिखित दो समूहों में बांटा जा सकता है
1. उपचयी क्रियाएँ (Anabolic Reactions) वे क्रियाएं, जिनमें सरल कार्बनिक पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण होता है, उपचयी क्रियाएँ कहलाती है;
जैसे-प्रकाश संश्लेषणा
2. अपचयी क्रियाएँ (Catabolic Reactions) वे क्रियाएं, जिनमें जटिल कार्बनिक पदार्थ, सरल कार्बनिक पदार्थों में विखण्डित होते हैं, अपचय क्रियाएँ कहलाती है;
जैसे- श्वसन, पावन, आदि।
इस अध्याय में हम अपना ध्यान इन्हीं दोनों प्रकार की क्रियाओं पर केन्द्रित करेगे।
23 (a)पोषण (Nutrition):–
सभी जीवों को जीवित रहने के लिए तथा शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं को करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है। अतः जीवों द्वारा भोजन तथा अन्य खाद्य पदार्थों से पोषक तत्वों को प्राप्त करने की क्रिया को पोषण कहते हैं।
पोषण के प्रकार (Types of Nutrition):–
जीवों में पोषण निम्नलिखित दो प्रकार का होता है।
1. स्वपोषण (Autotrophic Nutrition) स्वपोषण का शाब्दिक अर्थ है स्वयंघोषित करना जैसे-हरे (CO२) और (H२O) तथा पर्णहरिम (Chlorophyll) की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने भोज्य पदार्थों का निर्माण स्वयं कर लेते हैं। इस प्रकार के जी जो अपने भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं, स्वपोषी (Autotrophs) कहलाते है।
2. परपोषण (Heterstrephie Natrition) स्वपोषियों के विपरीत कुछ जीववारी भोज्य पदार्थों का निर्माण स्वयं नहीं कर पाते तथा भोजन के लिए अन्य जीओ पर निर्भर होते है। ऐसे जीव, परपोषी (Heforetrophs) कहलाते है तथा उनके द्वारा इस प्रकार पोषित होना परपोषण कहलाता है।
परपोषी निम्न तीन प्रकार के होते है
(i) प्राणिसमभोजी (Holotic) जीव जो विभिन्न भोग्य पदार्थों को टीम या तरल अवस्था में ग्रहण करते हैं, प्राणिसम्भोजी कहलाते है; जैसे-मनुष्य आदि।
(ii) परजीवी (Paranites) से जीव जो दूसरे जीवों (जंतु या पादप) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, परजीवी कहलाते हैं; जैसे- फीताकृमि, अमरबेल, आदि।
(iii) मृतोपजीवी (Saprosoic) से जीव जो मूल बीचों में अपना भोजन प्राप्त करते हैं. मृतोपजीवी कहलाते हैं; जैसे--कव जीवाणु, आदि।
पोषण या भोजन की आवश्यकता (Need of Food or Nutrition):–
जीवधारियों के लिए भोजन आवश्यक है। इसके निम्नलिखित कार्य है
(i) ऊर्जा की आपूर्ति (Supply of Energy) विभिन्न जैविक कार्यों में व्यय होने वाली ऊर्जा की पूर्ति भोजन के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप होती हैं। मुख्यतया इस ऊर्जा उत्पादन हेतु जैविक अणु कार्बोहाइड्रेट्स (ग्लूकोस) का उपयोग होता है। इससे मुक्त रसायनिक ऊर्जा गतिज ऊर्जा के रुप में जीव धारियों की विभिन्न संरचनाओं में संचित हो जाती है।
(ii) शरीर की वृद्धि (Growth of the Body) पचे हुए खाद्य पदार्थों का जीवद्रव्य द्वारा आत्मसात् कर लेना स्वांगीकरण (Assimilation) कहलाता है, इससे जीवद्रव्य की मात्रा में वृद्धि होती है साथ ही जीवधारियों के शरीर में भी वृद्धि होती है। इसमें उपस्थित प्रोटीन्स, खनिज लवण, विटामिन्स, आदि शरीर की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(iii) शरीर में टूट-फूट की मरम्मत (Repair of Damage Body Parts) भोजन के पोषक तत्व मुख्यतया प्रोटीन्स द्वारा शरीर में प्रतिदिन होने वाली टूट-फूट की मरम्मत होती है। इसके साथ ही खनिज लवण व विटामिन्स, इन मरम्मत क्रियाओं को प्रेरित करते हैं।
(iv) रोगों से रक्षा (Protection from Diseases) सन्तुलित भोजन हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) को बढ़ाने में सहायक होता है। भोजन के अवयव जैसे-प्रोटीन्स, विटामिन्स, खनिज लवण, आदि इस कार्य के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पोषक पदार्थ हैं।
पोषक पदार्थ (Nutrients):–
इनको निम्न प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं "पोषक पदार्थ भोज्य पदार्थों में पाए जाने वाले वे रासायनिक पदार्थ होते हैं, जिनकी उचित मात्रा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अतिआवश्यक है।"
रासायनिक दृष्टि से पोषक पदार्थों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है
I. कार्बनिक पदार्थ
II. अकार्बनिक पदार्थ
कार्बनिक पदार्थ (Organic Substances):–
इनको सरल भाषा में जैविक अणु (Biomolecules) भी कहते हैं। जीवधारियों के शरीर में पाए जाने वाले ये कार्बनिक पदार्थ निम्न प्रकार के होते हैं
1. कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates):–
ये कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बनते हैं, जो प्राय: 1: 2:1 के अनुपात में होते हैं। सरल कार्बोहाइड्रेट्स शर्कराओं के अन्तर्गत ग्लूकोस, फ्रक्टोस, लैक्टोस, जबकि जटिल कार्बोहाइड्रेट्स के अन्तर्गत मण्ड (Starch) प्रमुख है।
यह मुख्यतया चावल, आलू, गन्ना, चुकन्दर, आदि में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
कार्बोहाइड्रेट्स के कार्य (Functions of Carbohydrates):–
कार्बोहाइड्रेट्स के कार्य निम्न प्रकार हैं
(i) कार्बोहाइड्रेट्स जैविक कार्यों हेतु ऊर्जा का उत्पादन करते हैं। इनमें से ग्लूकोस जैसे अणु तो शरीर को तुरन्त ही ऊर्जा प्रदान करते हैं। अतः ग्लूकोस को कोशिकीय ईंधन (Cellular fuel) भी कहा जाता है।
(ii) ये विभिन्न कोशिकाओं के बीच पहचान एवं समन्वयन में प्रयुक्त मुख्य अणु होते हैं।
2. प्रोटीन्स (Proteins):–
प्रोटीन्स की संरचना जटिल होती है। यह जीवित जीवों के शरीर का 14% भाग बनाती है। ये सामान्यतया कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के यौगिक हैं। इनकी संयोजन इकाइयों को अमीनो अम्ल कहते हैं अर्थात् हम इनको अमीनो अम्लों के बहुलक भी मान सकते हैं। प्रोटीन्स जीवद्रव्य का निर्माण करने वाले प्रमुख पदार्थ हैं। प्रोटीन्स के मुख्य स्रोत माँस, मछली, दूध, अण्डा, पनीर, सोयाबीन, आदि हैं। प्रोटीन्स की कमी से बच्चों में क्वाशरकोर (Kwashiorkor) तथा मैरेस्मस (Marasmus) रोग हो जाते
प्रोटीन्स के कार्य (Functions of Proteins):–
जीवधारियों के शरीर में प्रोटीन्स निम्न कार्य करते हैं। (i) ये जीवद्रव्य का निर्माण करने वाले प्रमुख पदार्थ हैं। (ii) ये शरीर में हुई टूट-फूट की मरम्मत करते हैं।
(iii) पौधों और जन्तुओं में विकरों या एन्जाइम (Enzyme) के रूप में कार्य करते हैं।
(iv) ये बाल, माँसपेशियों तथा त्वचा के मुख्य घटक हैं।
(v) ये हॉर्मोन्स की तरह भी कार्य करते हैं; जैसे- इन्सुलिन, वेसोप्रेसिन, आदि।
(vi) कार्बोहाइड्रेट्स तथा वसाओं की कमी होने पर प्रोटीन्स जीवधारियों के शरीर को त्वरित ऊर्जा (Instantaneous energy) प्रदान करते हैं।
(vii) ये उपापचय के लिए आवश्यक ऑक्सीजन, वसा तथा दूसरे पदार्थों का परिवहन भी करते हैं।
3. वसा (Fat):–
ये कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के असंतृप्त यौगिक होते हैं। मक्खन दूध, घी इसके स्रोत होते हैं। इसके अतिरिक्त ये नारियल, मूंगफली, सरसों, तिल, आदि में भी पाया जाता है।
वसा के कार्य (Functions of Fat):–
वसा के कार्य निम्न प्रकार हैं
(i) शरीर में अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट्स वसा के रूप में संचित रहते हैं, जो ऊर्जा प्रदान करने में सहायक होते हैं।
(ii) ये ताप नियन्त्रक होते हैं तथा प्रोटीन्स के साथ मिलकर कोशिका कला का निर्माण करते हैं।
4. विटामिन्स (Vitamins):–
ये जटिल कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो शरीर को प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं। इनकी कमी से अपूर्णता रोग (Deficiency diseases) हो जाते हैं। ये शरीर की उपापचयिक क्रियाओं के लिए भी अतिआवश्यक होते हैं। इन्हें वृद्धिकारक (Growth factors) भी कहते हैं।
विटामिन्स मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं
(i) वसा में विलेय विटामिन्स (Fat Soluble Vitamins) ये विटामिन्स वसा में होते हैं। वसा में घुलनशील होने के कारण इनकी अधिक मात्रा का उत्सर्जन मानव शरीर से हो पाना सम्भव नहीं होता इसी कारण इनकी कम एवं अधिक दोनों प्रकार की मात्रा मानव में रोग उत्पन्न करती है।
Vitamin ka naam, shrot, karya व unse hone Wale Rog (विटामिन का नाम श्रोत, कार्य व उनसे होने वाले रोग ):–
नाम | स्रोत | कार्य | कमी एवं अधिकता से उत्पन्न रोग |
---|---|---|---|
विटामिन - A (रेटिनॉल-Retinal) | गाजर, टमाटर, हरी पत आम, दूध, मछली, यकृत तेल(Codliver oil) | दृष्टि , वृद्धि , उपकला ऊतको के विभेदीकरण के लिए आवश्यक भूमिका) | कमी से रतोंधी (Night blindness), जीरोफ्थैलमिया (आंख के कॉर्निया का कठोरीकरण) तथा अधिकता से भूख में कमी, सिरदर्द बैचैनी, उल्टी, आदि। |
विटामिन-D(कैल्सफिरॉन-Calciferol) | मछली, यकृत तेल, सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में त्वचा विटामिन-D का संश्लेषण कर सकती है। | यह आंतों में कैल्शियम के अवशोषण में वृद्धि करता है हड्डियों में नियन्त्रित केल्शियम निक्षेषण में सहायता करता है। | कमी से बच्चों में रिकेट्स (सुख) रोगका दा वयस्कों में ऑस्टियोमलेशिया, इसमें लाचीली हो जाती है। अधिकता से कोमल ऊतकों में Ca²+ एवं PO²-4 आयनों का एकत्रण, बेचैनी आदि। |
Vitamin E(टोकोफेरॉल Tocoferol) | सब्जियों का तेल, गेहूं के अंकुर, सूरजमुखी का तेल, अण्डा, वनस्पति वसा में | प्रतिऑक्सीकारक की तरह कार्य करते हैं। जननिक एपिथोलियम को वृद्धि में सहायक। | कमी से प्रजनन विफलता, पेशियों की दुर्बलता, एनीमिया। अधिकता का कोई प्रभाव नहीं। |
Vitamin k(नैफ्थोक्विनॉन-Naphthoquinone) | पत्तेदार सब्जियों, गेहूं के अंकुर, पनीर, अण्डा, आदि। | रुधिर का थक्का जमने के समय में वृद्धि, अधिक रुधिर स्राव को रोकना | कमी से रुधिर थक्का जमने में विकार एवं अधिकता से पाचन तन्त्र में गडबड़ी एवं रक्ताल्पता। |
(ii) जल में विलेय विटामिन्स (Water Soluble Vitamins) में विटामिन्स जल में घुलनशील होते हैं। इनको अधिक मात्रा हमेशा मूत्र के साथ विसर्जित कर दी. जाती है। अतः से हमारे शरीर में सिर्फ अपूर्णता रोग ही उत्पन्न कर सकते है।
नाम | स्रोत | कार्य | कमी से उत्पन्न रोग |
---|---|---|---|
Vitamin - B1 (थायमीन - thiamine) | अंकुरित गेहूं खमीर, फली (सेम) मछली, यकृत दूध, मांस तथा यीस्ट। | कार्बोहाइड्रेट, वासा एवं अमीनो अम्ल साइम के उपापचय में सहएंजाइम के रूप में। | बेरी-बेरी (भूख का कम लगना एवं वृद्धि में मन्दता) पेशियों तथा क्षीण हो जाती है। |
विटामिन-B2 (राइबोफ्लेविन- Riboflavin) | दूध, पनीर, मांस, फली अंकुरित गेहूँ तथा हरी पत्तेदार सब्ज़ियां। | RBCs के निर्माण में सहायक, FMN और FAD सहएंजाइम की तरह कार्य करता है। | त्वचा, जीभ, आदि का फटना एवं आंखो का लाल होना। |
विटामिन B3 ( निआसिन या निकोटीनिक अम्ल - Niacin or nicotonic acid) | साबुत अनाज, काष्टफल, फली, यीस्ट , यकृत, मछली तथा मांस। | उपापचयी क्रियाओं में कोएंजाइम - A का घटक। | पैलेग्रा व हार्ट नप बीमारी। |
Vitamin B5 (पेंटोथेनिक अम्ल - Pentothenic acid) | यीस्ट, दूध, मूंगफली, टमाटर, यकृत ,गेहूं,चना आदि। | यह TCA चक्र में कोएंजाइम - A बनाता है। | डर्मेटाइटिस, शारीरिक वृद्धि कम होना, बालों का गिरना एवं बालों का सफेद होना। |
Vitamin B6 (पाइराइडॉक्सिन-Pyridoxine) | साबुत अनाज, दालें, मटर ,केला, सोयाबीन मांस तथा सब्ज़ियां। | अमीनो अम्ल तथा प्रोटीन का उपापचय। | डर्मेटाइटिस, एनीमिया मरोड़ (Convulsions) पड़ना, मानसिक बीमारी ,कम वृद्धि। |
फॉलिक अम्ल (folic acid) | हरी पत्तेदार सब्जियां, सोयाबीन, यकृत, अंडा, गुर्दा तथा यीस्ट | RBC के निर्माण में आवश्यक एवं भूख बढ़ाता है। | मेगालोब्लास्टिक एनीमिया (Megaloblastic anaemia) |
Vitamin B12 (सायनोकोबालामिन, कोबालामिन- cyanocobalamin ) | यकृत,मांस, मछली, अण्डे,तथा दूध। | RBCS के निर्माण में, DNA के सश्लेषण में,आदि। | पर्नीशियस एनीमिया (Pernicious anaemia)। |
Vitamin C (एस्कॉर्बिक अम्ल -Ascorbic acid) | नींबू वंशीय (सिट्रस) फल, आँवला, हरे पत्ते वाली सब्जियां ,अमरूद तथा टमाटर। | RBC और प्रतिरक्षी के निर्माण में आवश्यक हड्डियों, दांतों और मसूड़ों के लिए अच्छा है। | इसकी कमी से स्कर्वी (Scurvy) नामक रोग (मसूड़ों में रुधिर स्राव तथा भार में कमी) हो जाता है। |
अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances):–
इसके अन्तर्गत खनिज लवण एवं जल आते हैं।
1. खनिज लवण (Mineral Salts):–
ये सामान्यतया कैल्शियम, सोडियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम एवं लौह के कार्बोनेट्स, क्लोराइड्स, फॉस्फेट्स, सल्फेट्स, आदि के रूप में पाए जाते हैं। शरीर में इनको मात्रा लगभग 2-3% होती है। हरी सब्जियां, फल, अनाज, दूध, मॉस, मछली, नमक, आदि खनिज लवणों के मुख्य स्रोत है। लवण विभिन्न उपापचयी क्रियाओं हेतु आवश्यक होते हैं।
खनिज लवण के कार्य( Functions of Mineral Salts):–
खनिज लवण के कार्य निम्न प्रकार है
(i) कैल्शियम तथा फॉस्फोरस दाँतों व हड्डियों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।
(ii) लौह हीमोग्लोबिन के लिए आवश्यक होता है।
(iii) आयोडीन, थायरॉइड ग्रन्थि से स्त्रावित हार्मोन्स का मुख्य अवयव होता है।
(iv) चोट लगने पर चक्का जमने में सहायता देकर ये रुधिर नाव को रोकने का कार्य करते हैं।
(v) ये जीवद्रव्य के pH को नियन्त्रित रखते हैं।
2. जल (Water):–
मानव शरीर का लगभग 60-80% भाग जल होता है। जल शरीर में होने वाली सभी जैविक क्रियाओं में भाग लेता है तथा सभी भोज्य पदार्थों के लिए विलायक का कार्य करता है। जल की कमी से निर्जलीकरण (Dehydration) को समस्या उत्पन्न हो जाती है।
जल के कार्य (Functions of Water):–
जल के कार्य निम्न प्रकार है
(i) यह शरीर के तापमान को नियन्त्रित रखता है तथा पोषक पदार्थों के स्थानान्तरण में सहायता करता है।
(ii) श्वसन को क्रिया में जल उत्पाद तथा प्रकाश संश्लेषण में कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होता है।
जल की मात्रा मानव शरीर के विभिन्न द्रव्यों में pH को नियन्त्रित करता है।
जन्तुओं में पोषण की विभिन्न अवस्थाएँ(Different Stages of Nutrition in Animals ):–
जन्तुओं में पोषण की निम्नलिखित पाँच अवस्थाएँ होती हैं
(i) अन्तर्ग्रहण (Ingestion):–
भोज्य पदार्थों के शरीर में पहुँचने की क्रिया को अन्तर्ग्रहण कहते हैं अथवा बाहरी वातावरण से भोज्य पदार्थों को अनेक विधियों से ग्रहण करना अन्तर्ग्रहण कहलाता है।
भिन्न-भिन्न जीव भिन्न-भिन्न अंगों द्वारा भोजन ग्रहण करते हैं
• एककोशिकीय जन्तुओं (Unicellular Animals) में मुख नहीं होता है, वे जल के साथ आए भोजन कणों को अपने शरीर पर चिपकाकर ग्रहण कर लेते हैं; जैसे- अमीबा, आदि।
• बहुकोशिकीय जन्तुओं (Multicellular Animals) में मुख होता है। ये जीव सर्वप्रथम भोजन को मुख तक लाते हैं; जैसे-हाइड्रा स्पर्शकों द्वारा, मेंढक द्विशाखित जीभ द्वारा, पक्षी चोंच द्वारा, मानव हाथों द्वारा भोजन को मुख से ग्रहण करते हैं। इसके पश्चात् मुख से भोजन को चबाकर उसका अन्तर्ग्रहण किया जाता है।
(iv) स्वांगीकरण (Assimilation):–
पचे हुए भोज्य पदार्थ कोशिका के जीवद्रव्य में पहुँचने के बाद, उसी में विलीन (आत्मसात) हो जाते हैं। इस प्रक्रिया को स्वांगीकरण कहते हैं। विभिन्न प्रकार की इस क्रिया के फलस्वरूप जन्तु की वृद्धि होती है।
(v) मल विसर्जन या बहिःक्षेपण (Egestion):–
पाचन समाप्त होने के पश्चात् आहारनाल में कुछ अपशिष्ट पदार्थ शेष रह जाते है,जिनका पाचन सम्पन्न नहीं हो पाता। इनका मानव शरीर से उत्सर्जन अतिआवश्यक होता है। इन अपशिष्ट पदार्थों को मल के रूप में शरीर से बाहर निष्कासित करने की प्रक्रिया मल विसर्जन या बहिःक्षेपण कहलाती है। एककोशिकीय जन्तुओं में कोशिका कला द्वारा ही यह कार्य सम्पन्न हो जाता है। बहुकोशिकीय जन्तुओं में आहारनाल का अन्तिम भाग गुदा खुलता है, जो उत्सर्जन के काम आता है।
मनुष्य में पाचन क्रिया (Mechanism of Digestion in human:–
मनुष्य में भोजन के पाचन की प्रक्रिया को दी भागों में बाँट सकते हैं
1. यान्त्रिक या भौतिक पाचन(Mechanical or Physical Digestion):–
इसमें भोजन की चबाना, आमाशय में भोजन की लुगदी बनना, आहारनाल में क्रमाकुंचन गति (पेशीय संकुचन) के कारण भोजन को आगे खिसकाना, आदि सम्मिलित हैं।
क्रमाकुंचन (Peristalsis):–
क्रमाकुंचन गति स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के नियन्त्रण में एक प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex action) के रूप में होती है। यह पाचन प्रक्रिया की महत्वपूर्ण क्रिया है, जो भोजन को पाचन नलिका में सुगमता से चलाने हेतु आवश्यक है। आहारनाल की दीवार पर पेशियाँ होती हैं, जिनके क्रमानुसार संकुचन करने से तरंग की तरह यह गति उत्पन्न करती हैं, जो भोजन के विभिन्न अवयवों को आहारनाल जैसे-भोजन को ग्रासनली से पेट में ले जाने हेतु, पेट से भोजन को छोटी आँत में ले जाने हेतु तथा यहाँ से बड़ी आँत, फिर कोलन (Colon) तथा वहाँ से गुदा तक ले जाने हेतु इसकी आवश्यकता होती है।
2. रासायनिक पाचन (Chemical Digestion):–
इसके अन्तर्गत पाचक ग्रन्थियों द्वारा स्रावित रस के विकर (एन्जाइम्स) अघुलनशील भोज्य पदार्थों को सरल घुलनशील इकाइयों में तोड़ देते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं को सम्मलित कर मनुष्य में पाचन निम्नलिखित पदों में सम्पन्न होता है
(i) मुख गुहिका में पाचन (Digestion in Buccal Cavity) मुख द्वारा भोजन का अन्तर्ग्रहण होता है। मुख में उपस्थित दाँत भोजन को चबाते हैं। मुख गुहिका में उपस्थित लार ग्रन्थियों से टायलिन नामक एन्जाइम स्त्रावित होता है, जो मण्ड (Starch) को शर्करा (Sugar) में बदल देता है, इसलिए रोटी हमें चबाने पर मीठी लगती है। लार में उपस्थित लाइसोजाइम (Lysozyme) भोजन में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है।
लार का pH मान लगभग 6.8 होता है अर्थात् मुख गुहिका में भोजन के पाचन से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाएँ अम्लीय माध्यम में होती है। मुख गुहिका में उपस्थित जीह्वा के द्वारा मनुष्य केवल स्वाद का अनुभव करता है।
मुख गुहिका से भोजन ग्रासनली में होता हुआ आमाशय में पहुँचता है। अतः मुख गुहिका में चबाने के अतिरिक्त पाचन से सम्बन्धित सिर्फ निम्न अभिक्रिया ही सम्पन्न हो पाती है।
मण्ड + जल लार का टायलिन pH 6.8. → शर्करा
(ii) ग्रासनली में पाचन (Digestion in Oesophagus) ग्रासनली में पाचक एन्जाइम्स अनुपस्थित होते हैं। इसका मुख्य कार्य भोजन का संवहन ही है। अतः इसमें क्रमाकुंचन गति के कारण भोजन को आगे की ओर धकेला जाता है।
(iii) आमाशय में पाचन (Digestion in Stomach) आमाशय थैलेनुमा भाग होता है, जिसमें एक बार अन्तर्ग्रहण किया हुआ भोजन एकत्रित हो जाता है। तत्पश्चात् आमाशय की भित्ति में उपस्थित जठर ग्रन्थियों (Gastric glands) द्वारा जठर रस (Gastric juice) का स्त्रावण होता है।
जठर रस में 97-99% जल, 0.20.5% हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl), पेप्सिन (Pepsin), जठर लाइपेस (Gastric lipase), रेनिन, आदि एन्जाइम श्लेष्म के साथ पाए जाते हैं। इसकी pH 1-3.5 होने के कारण यह अम्लीय होता है।
जठर रस में उपस्थित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) निष्क्रिय पेप्सिनोजन (Pepsinogen) को सक्रिय पेप्सिन (Pepsin) में बदल देता है।
पेप्सिनोजन (निष्क्रिय) -------› पेप्सिन (सक्रिय)
इसके अतिरिक्त HC] भोजन में उपस्थित जीवाणुओं को भी मारता है तथा भोजन को सड़ने से बचाता है।
(a) पेप्सिन (Pepsin) यह प्रोटीन पाचन एन्जाइम है तथा प्रोटीन को पेप्टोन्स तथा पॉलीपेप्टाइड में तोड़ देता है।
प्रोटीन --------› पेप्टोन्स + पॉलीपेप्टाइड
(b) रेनिन (Renin) यह निष्क्रीय प्रोरेनिन के रूप में स्लावित होता है। तथा HCI के H' आयन से क्रिया करके सक्रिय रेनिन का निर्माण करता है। यह एन्जाइम दुग्ध प्रोटीन (केसीन) को निम्न प्रकार से पचाने का कार्य करता है।
दुग्ध प्रोटीन (केसीन) ----------› पैराकेसीनेट
यह शिशुओं में पाया जाता है, जबकि वयस्क मानव में अनुपस्थित होता है। वयस्क मानव में रेनिन का कार्य पेप्सिन द्वारा ही किया जाता है।
(c) जठर लाइपेस (Gastric lipase) इसके द्वारा वसा का आंशिक पाचन होता है। यह वसा की ट्राइग्लिसराइड्स में तोड़ देता है।
वसा ---------› ट्राइग्लिसराइड्स
आमाशय में भोजन 3-4 घण्टे रहता है। मन्थन गतियों के कारण भोजन भूरे रंग की लेई जैसी लुगदी में परिवर्तित हो जाता है, जो काइम (Chyme) कहलाता है। यहाँ से भोजन धीरे-धीरे ग्रहणी में पहुँचता है।
(iv) छोटी आँत में पाचन (Digestion in Small Intestine) हालाँकि कार्बोहाइड्रेट का पाचन मुख गुहिका से तथा प्रोटीन व वसा का पाचन आमाश्य से प्रारम्भ होता है, परन्तु पाचन की क्रिया प्रमुख रूप से छोटी आंत में सम्पन्न होती है। छोटी आँत का अग्रभाग, जो ग्रहणी (Duodenum) कहलाता है, उसमें यकृत से पित्त रस (Bile juice) एवं अग्न्याशय से अग्न्याशयिक रस (Pancreatic juice) भी आकर पाचन क्रिया में सहायता करता है।
• (Bile Juice) यह क्षारीय रस होता है, जिसका pH लगभग 17.7 होता है। पित्त रस में लगभग 92% जल (Water), 6% पित्त लवण (Bile salts), 0.3% पित्त वर्णक (Bile pigments), 0.3-0.9% कोलेस्ट्राल, 0.3% लेसिथिन तथा 1% वसा अम्ल (Fatty acids) होते हैं।
(v) भोजन का अवशोषण (Absorption of Food) :-
मनुष्य की छोटी आंत एवं आन्तरिक स्तर पर उपस्थित (Vitto में हर एवं सरीका की केशिकाओं का जाल होता है। कुर के मध्य भाग में आशीर चाहिनी या सैक्टिवा (Lacteal) वामक लसीका फेशिका उपस्थित होती है। इनमें से लसीका केशिकाएँ अम्ल तथा ग्लिसरॉल का अवशोषण करती है।
ये वसीय अम्ल कुछ लवणों के साथ संयोजित होकर अपः श्लेष्म Gobm) तक पहुंचते हैं। जहाँ ये अम्ल ग्लिसरॉल के साथ जुड़कर पुनः सा बिन्दुओं का निर्माण करता है। लसीका वाहिनियाँ, रुधिर नाहिनियों में खुलकर इन वसा बिन्दुओं को वापस रुधिर में पहुंचा देती है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक अम्ली के अन्तिम उत्पादों का अवशोषण रसाकुरी में उपस्थित रुधिर केशिकाओं द्वारा होता है।
आहारनाल के सभी भागों से रुधिर एकत्रित होकर यकृत निवाहिका शिरा (Hepatic portal vein) द्वारा यकृत तक पहुँच जाता है अर्थात् पचित भोजन अवशोषण के पश्चात् रुधिर के द्वारा पहले यकृत (Liver) में पहुँचता है, जहाँ कुछ पदार्थों का संचयन एवं कुछ को कोशिका के उपयोग में आने लायक बनाया जाता है, इसके पश्चात् रुधिर, लसीका तथा ऊतक द्रव्य भोज्य पदार्थों को प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा देते हैं: जैसे-अधिक मात्रा में आए हुए अमीनो अम्लों को अमोनिया तथा यूरिया में तथा आवश्यकता से अधिक शर्करा को यकृत ग्लाइकोजन में बदलकर संचित रखता है, जिससे रुधिर में भोज्य पदार्थों का सन्तुलन बना रहता है।
रसांकुर व सूक्ष्मांकुर (Villi and Microvilli):–
छोटी आँत की सतह पर अवशोषण सतह बढ़ाने हेतु महत्त्वपूर्ण भाग पाए जाते हैं, जो निम्न हैं
• रसांकुर छोटी आंत की आन्तरिक श्लेष्ण परत पर रसांकुर (लगभग 1 मिमी ऊंचाई वाले) पाए जाते हैं, जो स्तम्भाकार एपीथीलियम ऊतक से ढ़के होते हैं। ये आँत में होने वाले अवशोषण की सतह को थोड़ा बढ़ा देते हैं।
• सूक्ष्मांकुर रसांकुर की सतही कोशिकाओं पर बहुत से सूक्ष्मदर्शी सूक्ष्मांकुर निकले होते हैं, जो आँत में अवशोषण हेतु सतह को पुनः बढ़ा देते हैं।
(vi) भोजन का स्वांगीकरण (Assimilation of Food) पाचन के पश्चात् जटिल भोज्य पदार्थ अत्यन्त सरल तथा जल में विलेय हो जाते हैं। इस रूप में कोशिका के जीवद्रव्य में इनका स्वांगीकरण कर लिया जाता है। अवशोषित ग्लूकोस कोशिकाओं में आन्तरिक श्वसन द्वारा ऊर्जा का उत्पादन करता है तथा अमीनो अम्ल प्रोटीन के निर्माण में सहायक होते हैं, जो कोशिकाओं के निर्माण, मरम्मत, वृद्धि, आदि के काम आते हैं।
(vii) मल परित्याग या बहिःक्षेपण (Egestion) अवशोषण के पश्चात् अनेक पदार्थ अपचित रह जाते हैं, जिनका शरीर के अन्दर रखना हानिकारक हो सकता है। अतः मानव गुदा द्वारा इनका बहिःक्षेपण (Egestion) कर देता है।
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