अध्याय- 25जन्तुओं में तन्त्रिका समन्वयन(Nervous Coordination in Animals):-
मानव शरीर में बहुत से अंग (Organs) एवं अंगतन्त्र (Organ system) पाए जाते हैं, जोकि स्वतन्त्र रूप से कार्य करने में असमर्थ होते हैं जैव-स्थिरता (समावस्था) बनाने हेतु इन अंगो के कार्यों में समन्वयन अत्यधिक आवश्यक है। जीवों में बाह्य तथा अन्तः वातावरण के बीच सन्तुलन बनाए रखने की क्षमता को नियन्त्रण या समस्थापन (Homeostasis) तथा सामान्य स्थिति बनाए रखने की प्रतिक्रियाओं को समन्वयन (Coordination) कहते हैं। समन्वयता एक ऐसी क्रियाविधि है, जिसके द्वारा दो या अधिक अंगों में बढ़ती है व एक-दूसरे अंगों के कार्यों में मदद भी मिलती है; उदाहरण-जब हम शारीरिक व्यायाम करते हैं, तो पेशियां के संचालन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है। साथ ही ऑक्सीजन की आवश्यकता में भी वृद्धि हो जाती है। ऑक्सीजन की अधिक आपूर्ति के लिए श्वसन दर (Respiration rate), हृदय स्पन्दन दर (Heartbeat rate) एवं वृक्क वाहिनियों (Renal veins) में रुधिर प्रवाह की दर बढ़ना स्वभाविक हो जाता है अर्थात् शारीरिक व्यायाम मात्र पेशियों तक ही सीमित नहीं रहता अपितु यह श्वसन परिसंचरण एवं उत्सर्जन तन्त्रों को भी प्रभावित करता है, अब चूंकि ये अंग तन्त्र अलग-अलग है। अतः किसी एक तन्त्र द्वारा इन सभी तन्त्रों में समन्वयन किया जाना जरूरी हो जाता है। हमारे शरीर में तन्त्रिका तन्त्र एवं अन्तःस्रावी तन्त्र (Endocrine system) दो ऐसे तन्त्र है, जो सम्मिलित रूप से अन्य अंगों को क्रियाओं में समन्वयन करते हैं तथा उन्हें एकीकृत करते हैं। इस अध्याय में हम तन्त्रिका तन्त्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।
तन्त्रिका तन्त्र (Nervous System):-
शरीर की प्रत्येक प्रतिक्रिया में भाग लेने वाले विविध ऊतकों तथा अंगों की क्रियाओं के समन्वयन हेतु केवल जन्तुओं में एक विशेष तन्त्र पाया जाता है, जिसे तन्त्रिका तन्त्र कहते हैं। यह वातावरणीय परिवर्तनों को संवेदी सूचनाओं के रूप में ग्रहण करके उसे तन्त्रिकीय प्रेरणाओं अथवा आवेगों (Impulses) के रूप में प्रसारित कर प्रतिक्रियाओं (Quick reactions) का संचालन करता है।
यह भ्रूण की बाह्यचर्म (Ectoderm) से बनता है। तन्त्रिका तन्त्र के मुख्य घटक अथवा मुख्य कोशिका को तन्त्रिका कोशिकाएँ या न्यूरॉन (Nerve cells or neuron) कहते हैं। यह तन्त्रिका तन्त्र की संरचनात्मक (Structural) एवं क्रियात्मक (Functional) इकाई हैं।
तन्त्रिका कोशिकाएँ (Neurons):-
तन्त्रिका कोशिकाएँ अत्यधिक जटिल एवं लगभग 0.1 मिमी से 1 मीटर तक लम्बी होती हैं। यह शरीर की सबसे लम्बी कोशिका है। इनमें कोशिका विभाजन की क्षमता नहीं होती।
सामान्य तन्त्रिका कोशिका के निम्नलिखित भाग होते हैं
(i) कोशिकाकाय (Cyton) यह तन्त्रिका कोशिका का प्रमुख भाग है। इसके जीवद्रव्य में केन्द्रक, माइटोकॉण्ड्रिया, गॉल्जीकाय, वसा बिन्दु, अन्तः प्रद्रव्यी जालिका, आदि के अतिरिक्त अनियमित आकार के निस्सल के कण (Nissl's granules) उपस्थित होते हैं। इस भाग में तारककाय की अनुपस्थिति इन कोशिकाओं में विभाजन क्षमता के अनुपस्थित होने की पुष्टि करती है।
(ii) वृक्षिकान्त या द्रुमिका (Dendrites) ये अपेक्षाकृत छोटे एवं शाखामय प्रवर्ध होते हैं, जो सिरों की ओर क्रमशः संकरे होते जाते हैं। वृक्षिकान्त प्रेरणा या उद्दीपनों को कोशिकाकाय की ओर ले जाती है। तन्त्रिका कोशिका की दुमिका सभी आवेगों को कोशिकाकाय में लाने का कार्य करती हैं। द्रुमिका की सहायता से ही एक तन्त्रिका कोशिका अन्य तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़ी रहती है। यदि इसे काट दिया जाए, तो किसी प्रकार का आवेग संचारित नहीं होगा और बाह्य उद्दीपनों के लिए संवेदना समाप्त हो जाएगी।
(iii) तन्त्रिकाक्ष या अक्ष तन्तु (Axon) कोशिकाकाय से एक लगभग बराबर मोटाई का लम्बा प्रवर्ध अक्ष तन्तु (Axial filament) या तन्त्रिकाक्ष निकलता है। तन्त्रिकाक्ष के अन्तिम छोर की उपशाखाओं पर घुण्डीनुमा रचनाएँ सिनैप्टिक घुण्डियाँ (Synaptic knobs) होती हैं। ये अन्य तन्त्रिका कोशिका के द्रुमिका (Dendrites) के साथ युग्मानुबन्धन या सिनैप्स (Synapse) बनाती है।
तन्त्रिकाक्ष चारों ओर से तन्त्रिकाच्छद (Neurolemma) से घिरा होता है। यह श्वान कोशिकाओं (Schwann cells) से बनी होता है।
श्वान कोशिकाएँ और इनकी जैसी ही कुछ दूसरी कोशिकाएँ कुछ तन्त्रिका तन्तुओं में तन्त्रिकाक्ष के चारों ओर मायलिन (Myelin) नामक वसीय पदार्थ के स्वावण के लिए उत्तरदाई होती हैं। इन तन्तुओं को मज्जावृत्त (Medullated) कहते हैं, जब तन्त्रिका तन्तु में मायलिन का अभाव होता है, तो इन्हें मज्जारहित (Non-medullated) कहते हैं। तन्त्रिकाच्छद जगह-जगह पर तन्त्रिकाक्ष से चिपकी रहती है, इन स्थानों को रैनवियर के नोड (Node of Ranvier) कहते हैं।
तन्त्रिका तन्तु (तन्त्रिका तन्त्र) की कार्यिकी(Mechanism of Nervous System):-
तन्त्रिका तन्तुओं का मुख्य कार्य संवेदी अंगों से उद्दीपन ग्रहण करके उन्हें मस्तिष्क तक पहुँचाना तथा मस्तिष्क से प्राप्त प्रेरणाओं को अपवाही अंगों तक ले जाना है। यह सम्पूर्ण कार्य आवेगों के रूप में होता है। तन्त्रिका तन्तुओं में आवेगों का संवहन एक विद्युत रासायनिक (Electro-chemical) घटना है, जिसके अन्तर्गत आवेग स्वसंचारी (Sell-propagative) विद्युत रासायनिक लहरों (Electro-chemical waves) के रूप में तन्त्रिका तन्तुओं में से प्रसारित होते है।
तन्त्रिका आवेग की चालन क्रिया को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है। (i) तन्त्रिका तन्तु में तन्त्रिका आवेग की उत्पत्ति, जोकि तन्त्रिका तन्तु उपस्थित विभिन्न आयनों के आदान-प्रदान के फलस्वरूप होता है। में
(ii) तन्त्रिका तन्तु में आवेग संचरण या आवेगों का अन्तरा तन्त्रिकीय संचरण, • जोकि आयनों के उपरोक्त आदान-प्रदान के सभी सम्भव दिशाओं में संचरण के फलस्वरूप होता है।
सरल शब्दों में, हम इसे निम्न प्रकार से समझ सकते हैं, विश्रामावस्था के दौरान प्रत्येक तन्त्रिका तन्तु ध्रुवित अवस्था (Polarised state) में रहता है। किसी आवेग के उत्पन्न होने के कारण इसका विध्रुवण (Depolarisation) हो जाता है, जोकि एक लहर के रूप में पूरे तन्तु में फैलता जाता है। यहाँ लहर शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि जितनी तेजी से यह विध्रुवण तन्त्रिका तन्तु में फैलता है, उतनी ही तेजी से इसके पीछे-पीछे प्रत्येक स्थान पर इसका पुनः ध्रुवण (Repolarisation) होता रहता है।
इस आवेग को एक तन्त्रिका तन्तु से दूसरी तन्त्रिका तन्तु तक पहुँचने के लिए विशेष प्रक्रिया द्वारा युग्मानुबन्धन (Synapse) से गुजरना पड़ता है।
युग्मानुबन्धन (Synapse):-
दो तन्त्रिका कोशिकाओं (न्यूरॉन) के बीच में एक रिक्त स्थान होता है, जिसे युग्मानुबन्धन कहते हैं। तन्त्रिका के अन्त से विद्युत आवेग कुछ रसायनों का विमोचन करते हैं। ये रसायन युग्मानुबन्धन को पार करके अगली तन्त्रिका कोशिकाओं तक विद्युत आवेग पहुँचाती है।
तन्त्रिका कोशिकाओं के प्रकार (Types of Neurons):-
तन्त्रिका कोशिकाएँ कार्य के आधार पर निम्न प्रकार की होती हैं।
(i) संवेदी या अभिवाही तन्त्रिका कोशिकाएँ (Sensory Neurons) संवेदनाओं को अंगों से ग्रहण करके केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को पहुंचाती हैं।
(ii) चालक या अपवाही तन्त्रिका कोशिकाएँ (Motor Neurons) ये संवेदनाओं संदेशों को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से कार्यकारी अंगों तक पहुँचाती हैं।
(iii) मिश्रित या संयोजक तन्त्रिका कोशिकाएँ (Mixed Neurons) संवेदी तथा प्रेरक दोनों प्रकार की होती हैं तथा दोनों में सम्बन्ध स्थापित करती हैं।
इनके अतिरिक्त संरचना (प्रवर्गों की संख्या) के आधार पर तन्त्रिका कोशिकाएँ एक ध्रुवीय (Unipolar), द्विध्रुवीय (Bipolar) एवं बहुध्रुवीय (Multipolar) प्रकार की होती हैं साथ की कुछ निम्न श्रेणियों के जन्तुओं में अध्रुवीय (Nonpolar) तन्त्रिका कोशिकाएँ भी पाई जाती हैं। इनमें प्रवर्ध तो होते हैं, परन्तु उनमें कार्यात्मक विभेदीकरण नहीं होता है।
मानव तन्त्रिका तन्त्र (Human Nervous System):-
उच्च कशेरुकी प्राणियों सहित मनुष्य में तन्त्रिका तन्त्र निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया जाता है
(i) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (Central Nervous System) इसके अन्तर्गत मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु आते हैं।
(ii) परिधीय तन्त्रिका तन्त्र (Peripheral Nervous System) इसके अन्तर्गत कपाल तथा मेरुरज्जु से सम्बन्धित तन्त्रिकाएँ आती हैं।
(iii) स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomous Nervous System) यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है, किन्तु इसका नियन्त्रण केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होता है। स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के दो घटक होते हैं।
(a) अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र
(b) परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र
केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र (Central Nervous System):-
यह सूचनाओं के प्रसारण का मुख्य केन्द्र होता है। इसे निम्नलिखित दो भागों में बांटा जा सकता है।
1. मस्तिष्क (Brain):-
मस्तिष्क अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं कोमल अंग होता है। यह खोपड़ी के मस्तिष्क कोप (Cranium) में सुरक्षित रहता है। मानव मस्तिष्क का भार लगभग 1300-1400 ग्राम होता है, जबकि नवजात शिशु में इसका भार 370-400 ग्राम तक होता है। मनुष्य में इसका आयतन 1200-1500cc होता है। यह चारों ओर से तिहरी झिल्ली से घिरा होता है।
बाहरी झिल्ली को दृढ़तानिका (Duramater) मध्य झिल्ली को जालतानिका (Arachnoid) तथा भीतरी झिल्ली को मृदुतानिका (Piamater) कहते हैं। मृदुतानिका में रुचिर कोशिकाओं का एक सघन जाल होता है, इन्हीं के द्वारा मस्तिष्क को भोजन तथा O, मिलती हैं। मृदुतानिका एवं जालतानिका के मध्य तथा मस्तिष्क की गुहा (Ventricle) में एक रंगहीन, स्वच्छ तरल पदार्थ प्रमस्तिष्क मेरुद्रव्य (Cerebrospinal fluid) भरा रहता है, जो मस्तिष्क की बाह्य आघातों से सुरक्षा करता है।।
मस्तिष्क के तीन प्रमुख भाग होते हैं
(i) अग्रमस्तिष्क (Forebrain):-
इनके अन्तर्गत निम्न भाग आते हैं
(a) घ्राण मस्तिष्क (Olfactory Brain) मनुष्य में ये कम विकसित होता है। प्रमस्तिष्क के दोनों ललाट पिण्डों के निचले भाग पर एक-एक, अण्डाकार व छोटा घ्राण पिण्ड (Olfactory lobe) स्थित होता है। यह गन्ध (Smell) ज्ञान का केन्द्र होता है।
(b) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) यह मस्तिका का सबसे बड़ा विकसित भाग नाता है। प्रमस्तिष्क पर पाई जाने वाली दरारें इसकी सतह पल में वृद्धि करती हैं।
इसका बाह्य भाग धुसर पदार्थ (Grey matter) से बना होता है तथा भीतरी भाग श्वेत पदार्थ (White matter) से बना होता है।
एक गहरा अनुलम्ब विदर प्रमस्तिष्क को दाएँ-बाएँ प्रमस्तिष्क गोलाड़ों (Cerebral hemispheres) में बाँटता है। मानव एवं सभी स्तनधारियों में दोनों प्रमस्तिष्क गोलाद्धं तन्त्रिका तन्तुओं की एक पट्टी से जुड़े रहते हैं, जो कॉर्पस कैलोसम (Corpus callosum) कहलाता है। इस पट्टिका को उपस्थिति स्तनधारियों को प्रमुख पहचान है। इसमें आगे बड़ा आ ललाट पिण्ड (Frontal lobe) तथा पीछे छोटा शख पिण्ड (Temporal lobe) होता है।
शंख पिण्ड को एक विदर पुन,: दो भागों में बाहर की ओर उभरी हुई पैराइटल पिण्ड ( Parietal lobe) तथा भीतर को और ऑक्सीपिटल (Occipital lobe) में विभक्त कर देता है। यह स्मृति, सोचने, विचारने, बेतना, तर्क शक्ति, सीखने, आदि का केन्द्र होता है।
(c) डाइएनसिफैलॉन (Diencephalon) अग्रमस्तिष्क के पिछले भाग को डाइएनसिफैलॉन कहते हैं। यह प्रमस्तिष्क के ठीक नीचे स्थित होता है। इसके निम्नलिखित तीन भाग होते हैं।
• एपीथैलेमस (Epithalamus) यह भाग पीनियल ग्रन्थि से सम्बद्ध होता है तथा अपने ऊपर उपस्थित मुदतानिका के साथ मिलकर अग्र कोरॉइड जालक (Anterior choroid plexus) बनाता है।
• थैलेमस (Thalamus) दर्द, ठण्डा व गर्म को अनुभव का कार्य करता है।
• हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) यह भूख, प्यास, स्नेह, घृणा, उत्साह, पीड़ा, नींद व ताप नियन्त्रण का केन्द्र है। साथ ही ये वसा तथा कार्बोहाइड्रेट के उपापचय का भी नियन्त्रण करते हैं।
अतः डाइएनसिफैलॉन ताप उपापचय, जनन, दृक पिण्ड, दृष्टि, ज्ञान, आदि का नियन्त्रण एवं नियमन करता है। हाइपोथैलेमस से ही पीयूष ग्रन्थि (Pituitary gland) लगी रहती है, इसकी गुहा तृतीय निलय या डायोसील कहलाती है। यह मोनरो के छिद्र (Foramen of Monro) द्वारा पार्श्व गुहाओं से जुड़ा रहता है।
(ii) मध्यमस्तिष्क (Midbrain):-
मस्तिष्क का मध्य भाग अपेक्षाकृत छोटा होता है। यह भाग मस्तिष्क को मेरु रज्जु से जोड़ता है। इसका अधिकांश भाग प्रमस्तिष्क गोलाद्धों द्वारा ढका रहता है। इसके अन्तर्गत चतुष्णोलार्द्ध या कॉर्पोरा क्वाड्रीजेमाइना (Corpora quadrigemina) तथा क्रूरा सेरेब्राई (Crura cerebri) पट्टिकाएँ सम्मिलित होते हैं, यह पश्च मस्तिष्क को अग्र मस्तिष्क से जोड़ती हैं। इस भाग में दृश्य तन्त्रिकाएँ एक-दूसरे को क्रॉस करती हैं तथा ऑप्टिक काएज्मा बनाती हैं। यह देखने तथा सुनने में सहायक होता है।
(iii) पश्च मस्तिष्क (Hindbrain):-
इसके अन्तर्गत निम्न भाग आते हैं
(a) पोन्स (Pons) ये 25 सेमी लम्बे गोल उभार के रूप में मस्तिष्क के निचले तल पर स्थित होता है। यह श्वसन नियमन में सहायक है।
(b) अनुमस्तिष्क (Cerebellum) यह शरीर का सन्तुलन बनाए रखता है। यह पेशियों को नियन्त्रित करके प्रचलन, खेलने-कूदने, नाचने, आदि को नियन्त्रित करता है।
(c) मस्तिष्क पुच्छ (Medulla Oblongata) यह मस्तिष्क का पश्च तथा बेलनाकार भाग है तथा कपाल के महारन्ध्र (Foramen magnum) से निकलकर मेरुरज्जु में स्थानान्तरित हो जाता है। यह शरीर की अनैच्छिक (Involuntary) क्रियाओं; जैसे- श्वास की लय, हृदय स्पन्दन, परिसंचरण, छोकना, खाँसना, हिचकी, वमन, जीभ की गतियों, आदि का नियन्त्रण एवं नियमन करता है।
2. मेरु रज्जु या सुषुम्ना (Spinal Cord):-
मस्तिष्क पुच्छ कपालीय गुहा के बाहर एक लम्बी, खोखली व बेलनाकार रचना के रूप में मानव की देहगुहा में रूपान्तरित होता है। इस रचना को मेरु रज्जु कहते हैं। इसकी केन्द्रीय अक्ष में प्रमस्तिष्क मेरु द्रव्य (Cerebrospinal (fluid) से भरी संकरी गुहा न्यूरोसील (Neurocoel) होती है। मेरु रज्जु भी मस्तिष्क के समान ही तीन झिल्लियों से ढकी रहती हैं। इन झिल्लियों के बीच में एक तरल पदार्थ (धूसर द्रव्य) भरा रहता है, जो 'H' की आकृति का होता है।
मेरुरज्जु में धूसर एवं श्वेत द्रव्य की स्थिति मस्तिष्क के एकदम विपरीत होती हैं अर्थात् धूसर द्रव्य केन्द्र में तथा श्वेत द्रव्य बाहर की ओर स्थित होता है। मेरु रज्जु की केन्द्रक नलिका धूसर द्रव्य में धँसी रहती है।
धूसर द्रव्य के पंख सदृश उभार पृष्ठ व प्रतिपृष्ठ दोनों तरफ क्रमशः पृष्ठीय व अधर या प्रतिपृष्ठीय श्रृंग (Dorsal and ventral horn) कहलाते हैं। वक्षीय (Thoracic) व लुम्बर (Lumber) क्षेत्रों में पाश्र्वीय श्रृंग (Lateral horns) भी पाए जाते हैं मेरु रज्जु का पृष्ठ शल्क केन्द्रीय नाल से पृष्ठ पट (Dorsal septum) द्वारा जुड़ा रहता है। मेरु रज्जु प्रतिवर्ती क्रियाओं का केन्द्र है तथा यह मस्तिष्क व मेरु तन्त्रिकाओं के बीच सेतु का कार्य करती हैं।
मेरु रज्जु के कार्य (Functions of Spinal Cord):-
(1) यह प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex actions) का संचालन एवं नियमन करता है। अत: मेरु रज्जु के क्षतिग्रस्त होने पर मनुष्य में प्रतिवर्ती क्रियाएँ नहीं हो
पाती है।
(ii) यह अनैच्छिक क्रियाओं को सन्तुलित करता है।
(ii) यह मस्तिष्क को जाने तथा मस्तिष्क से आने वाली आवेगों के लिए मार्ग प्रदान करता है।
प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action):-
किसी उद्दीपन (Stimulus) के फलस्वरूप शीघ्रतापूर्वक होने वाली स्वचालित और अनैच्छिक क्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया कहते हैं; जैसे-स्वादिष्ट भोजन देखते ही मुँह में लार का आना, काँटा चुभते ही पैर का झटके के साथ ऊपर उठ जाना, तेज प्रकाश में आँख की पुतली का सिकुड़ जाना, छींकना, खाँसना, आदि अनेक प्रतिवर्ती क्रियाएँ हैं।
ये क्रियाएँ मेरु रज्जु से नियन्त्रित होती हैं। प्रतिवर्ती क्रिया तीव्रगति से होने वाली. स्वचालित अनुक्रिया है। इसके संचालन में मस्तिष्क भाग नहीं लेता है।
प्रतिवर्ती क्रिया की कार्यविधि( Mechanism of Reflex Action):–
इस प्रकार की क्रियाओं का सर्वप्रथम पता हाल (Hall; 1838) ने लगाया था। मेरुरज्जु से प्रत्येक मेरु तन्त्रिका दो मूलों (Roots) के रूप में निकलती है।
(i) चालक तन्तुओं से बना अधर मूल (Ventral root)
(ii) संवेदी तन्तुओं से बना पृष्ठ मूल (Dorsal root)
प्रतिवर्ती क्रिया से सम्बन्धित उपांग एक चाप (Arc) के रूप में उपस्थित रहते हैं। किसी प्रतिवर्ती चाप (Reflex arc) की संरचना को निम्न चित्र द्वारा समझा जा सकता है
संवेदी अंगों द्वारा संवेदना प्राप्त होने पर आवेग की लहर पृष्ठ मूल से होकर पृष्ठ मूल गुच्छक में स्थित तन्त्रिका कोशिका तथा उसके तन्त्रिकाक्ष में होती हुई मेरु रज्जु के धूसर द्रव्य में पहुँचती है, जिसके फलस्वरूप मेरु रज्जु से अनुक्रिया के लिए आदेश चालक तन्त्रिका कोशिका द्वारा सम्बन्धित मांसपेशियों में पहुंचते हैं। और अंग अनुक्रिया करता है।
अतः प्रतिवर्ती क्रिया को हम निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं
"संवेदी अंगों से, संवेदनाओं का, संवेदी तन्तुओं द्वारा मेरु रज्जु तक आने और मेरु रज्जु से प्रेरणा के रूप में अनुक्रिया करने वाले अंग की माँसपेशियों तक पहुँचने के मार्ग को प्रतिवर्ती चाप कहते हैं तथा होने वाली क्रिया प्रतिवर्ती क्रिया कहलाती है।"
इस क्रिया में संवेदना के मार्ग अर्थात् प्रतिवर्ती चाप को निम्न रेखाचित्र से समझ सकते हैं।
प्रतिवर्ती क्रियाओं के प्रकार (Types of Reflex Actions):–
स्वभाव के आधार पर प्रतिवर्ती क्रियाओं को दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है
(i) प्रतिबन्धित या अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditioned Reflex Actions) ये प्रतिवर्ती क्रियाएँ वंशागत एवं निश्चित जन्म से ही होती हैं, ये ऐच्छिक नहीं होती हैं। इन्हें प्राकृतिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Natural reflex actions) भी कहते हैं; उदाहरण-किसी विशेष समय या ऋतु में जनन करना, घोसला बनाना, पक्षियों में देशान्तरण, आदि क्रियाएँ अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ हैं। इन्हें जन्तु स्वयं ही बिना किसी पूर्व अनुभव के ही करता रहता है।
(ii) सरल या अनुबन्धित या अनुकूलित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditioned reflex Actions) इस प्रकार की प्रतिवर्ती क्रियाएँ जन्तु में सीखने या प्रशिक्षण द्वारा होने लगती है। इन्हें उपार्जित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Acquired reflex actions) भी कहते हैं।
यह जन्तुओं का सहज व वंशागत व्यवहार है; उदाहरण- कुत्ते में भोजन को देखकर लार का टपकना, तैरना, गाना बजाना, नृत्य करना, पिन चुभने पर या किसी गर्म वस्तु के छूने से हाथ हटाना, आदि।
कुछ प्रतिवर्ती क्रियाओं के सामान्य उदाहरण निम्न हैं
(i) खाँसना (Coughing) जब श्वसन मार्ग में भोजन पहुँच जाता है या किसी और वजह से श्वसन मार्ग में रुकावट आती है, तो फेफड़ों की हवा दबाव के साथ तेजी से मुँह के रास्ते बाहर निकलती है और उसके बदले मुँह से बहुत सारी हवा अन्दर पहुँच जाती है। इस क्रिया को खाँसी कहते हैं। इससे इस प्रकार श्वसन मार्ग में आई रुकावट की वजह से हुई क्षति की पूर्ति हो जाती है।
(ii) छींकना (Sneezing) इसमें फेफड़ों की वायु दबाव के साथ नाक से निकलती है। यह भी श्वसन मार्ग में रुकावट उत्पन्न होने के कारण होती है।
(iii) लार स्त्रावण (Saliva Secretion) भोजन के सामने आने पर लार का स्त्रावण होने लगता है।
(iv) पलक झपकना (Blinking) आँख के सामने अचानक कोई वस्तु आ जाए, तो पलकें बन्द हो जाती हैं।
(v) अन्य उदाहरण (Other Examples) उबासी आना, साइकिल चलाना, नृत्य करना, गर्म वस्तु पर हाथ या पैर लग जाने पर तेजी से हटाना, आदि।
नोट: पावलॉव (Pavlov) नामक रूसी वैज्ञानिक ने कुत्ते में भोजन को देखकर लार का टपकना' प्रयोग द्वारा अनुकूलित प्रतिवर्ती क्रिया के विकास को समझाया।
प्रतिवर्ती क्रिया का महत्त्व (Importance of Reflex Action):–
प्रतिवर्ती क्रियाएँ हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं
(i) प्रतिवर्ती क्रियाएँ रीढ़ रज्जु द्वारा सम्पादित होती हैं। अतः मस्तिष्क का कार्यभार कम होता है।
(ii) ये तुरन्त तथा तीव्रगति से होती हैं। अतः सम्भावित दुर्घटना को रोकने में सहायता मिलती है।
परिधीय तन्त्रिका तन्त्र (Peripheral Nervous System):–
केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को शरीर के विभिन्न संवेदी भागों से जोड़ने वाली धागेनुमा तन्त्रिकाएँ, परिधीय तन्त्रिका तन्त्र बनाती है। प्रत्येक तन्त्रिका अनेक तन्त्रिका तन्तुओं का गुच्छा होती है। अधिकांश तन्त्रिका तन्तु ऐच्छिक (Voluntary) प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित होते
ये दो प्रकार अर्थात् मस्तिष्क से सम्बन्धित कपालीय तन्त्रिकाएँ (Cranial nerves) तथा मेरु रज्जु से सम्बन्धित मेरु अथवा सुषुम्नीय तन्त्रिकाएँ (Spinal nerves) होती हैं। मानव में कपालीय तन्त्रिकाएँ 12 जोड़ी तथा सुषुम्नीय तन्त्रिकाएँ 31 जोड़ी होती हैं। इनमें से कुछ तन्त्रिकाएँ संवेदी, कुछ चालक तथा कुछ मिश्रित स्वभाव की होती हैं।
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic nervous System):–
यह वास्तव में परिधीय तन्त्रिका तन्त्र का ही भाग होता है, जो आन्तरंगों (Viceral organs) की क्रियाओं का नियन्त्रण व नियमन करता है, परन्तु परिधीय तन्त्रिकाओं के विपरीत यह भाग तुलनात्मक रुप में स्वतन्त्र होता है। इसमें आन्तरंगों का दोहरा परस्पर विरोधात्मक (Antagonistic) नियन्त्रण होता है।
इसके मुख्य दो घटक होते हैं, जो निम्नलिखित हैं
(i) अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र (Sympathetic Nervous System) इसका सम्बन्ध उन आन्तरांगों प्रतिक्रियाओं से होता है, जो ऊर्जा के व्यय के साथ प्रतिकूल (Adverse) वातावरणीय दशाओं में शरीर की सुरक्षा करती हैं; जैसे - यह हृदय स्पन्दन दर को बढ़ाता है, रुधिर नलिकाओं में सिकुड़न, रुधिर दाब को ज्यादा तथा लार के स्रावण को कम करता है।
(ii) परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र (Parasympathetic Nervous System) यह उन प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होता है, जिनमें ऊर्जा का संरक्षण होता है; जैसे - यह हृदय स्पन्दन को कम, रुधिर नलिकाओं का शिथिलन, लार स्रावण में बढ़ोत्तरी, आहारनाल में क्रमाकुंचन (Peristalsis) को बढ़ाता है साथ ही यह इन्सुलिन का स्रावण तथा बाह्य जननांगों को उत्तेजित भी करता है।
अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र में अन्तर:–
अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र | परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र |
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हृदय की धड़कन बढ़ाता है। | हृदय की धड़कन कम करता है। |
पुतली को फैलाता है। | पुतली को सिकोड़ता है। |
आँसू ग्रन्थियों के स्रावण को बढ़ाता है। | आँसू ग्रन्थियों के स्रावण को कम करता है। |
मूत्राशय को शिथिल करता है। | मूत्राशय को संकुचित करता है। |
एड्रीनल ग्रन्थि को अधिक स्रावण के लिए प्रेरित करता है। | एड्रीनल ग्रन्थि को अधिक स्रावण को रोकता है। |
आहारनाल की क्रमानुकुंचन गतियों को धीमा करता है। | आहारनाल की क्रमानुकुंचन गतियों को बढ़ाता है। |
गुदा अवरोधनी को संकुचित करता है। | गुदा अवरोधनी को फैलाता है। |
श्वासनली, श्वसनी, आदि को फैलाता है। | श्वासनली, श्वसनी, आदि को संकुचित करता है। |
ग्लूकेगॉन का स्रावण बढ़ाता है।1 | इन्सुलिन का स्रावण बढ़ाता है। |
यह तन्त्र आपातकाल तथा तनाव की स्थितियों में कार्य करता है। | यह तन्त्र शान्ति तथा विश्राम की स्थितियों में कार्य करता है। यह ऊर्जा संरक्षण में सहायक है। |
संवेदांग या ग्राही अंग या ज्ञानेन्द्रियाँ(Sensory or Sense Organs):–
प्रत्येक जन्तु संवेदी अर्थात् आन्तरिक एवं बाह्य परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील होता है। अतः जन्तु शरीर में ऐसे अंग भी पाए जाते हैं, जो संवेदनाओं को ग्रहण कर इन्हें विद्युत रासायनिक तन्त्रिका आवेगों का रूप दे देते हैं। ऐसे अंगों को ग्राही (Receptor) या संवेदी अंग (Sensory organs) कहते हैं।
प्रत्येक संवेदी अंग में संवेदी तन्त्रिकाएँ (Sensory nerves) होती हैं, जोकि उद्दीपनों (Stimuli) को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं जिससे आवश्यकतानुसार चालक तन्त्रिका तन्तुओं (Motor neurons) द्वारा इन्हें प्रतिक्रियाओं के रूप में अपवाहक अंगों (Effector organs) को भेज दिया जाता है। संवेदांग को भी तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है
(i) बाह्य संवेदांग या बाह्य ज्ञानेन्द्रियाँ (External Sensory or Sense Organs) इनमें ज्ञानेन्द्रियाँ; जैसे- नेत्र, कर्ण तथा त्वचा में फैली सूक्ष्मत्वक् ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं।
(ii) आन्तरांगीय या अन्तः संवेदांग या अन्त: ज्ञानेन्द्रियाँ (Internal Sensory or Sense Organs) ये भूख, प्यास, थकावट, रुधिर दाब, घुटन, आदि परेशानियों अर्थात् अन्तः उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।
(iii) स्वाम्य या मध्य ज्ञानेन्द्रियाँ (Midsense Organs) ये ऐच्छिक गतियों, तनाव, खिंचाव, सन्तुलन, दबाव, आदि के कारण उत्पन्न अन्तः उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं; जैसे- सन्धियाँ, स्नायु, आदि।
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