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सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का संक्षिप्त जीवन परिचय, मैंने आहुति बनकर देखा, हिरोशिमा , संदर्भ सहित व्याख्या

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 सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का संक्षिप्त जीवन परिचय:–



• जन्म मार्च, सन् 1911 ई० ।

• जन्म-स्थान- कश्मीर ।

• पिता हीरानंद शास्त्री ।

• वत्स गोत्रीय होने के कारण वात्स्यायन कहलाये ।

• मृत्यु - 4 अप्रैल, सन् 1987 ई०।




मैंने आहुति बनकर देखा संदर्भ सहित व्याख्या:–



मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,

मैं कम कहता हूँ जीवन मरु नंदन कानन का फूल बने?

काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उस की मर्यादा है,

मैं कब कहता हूँ वह पढ़कर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?

मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?

मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रसाद बने?

या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली सी याद बने ?

पय मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?

नेतृत्व न मेरा छिन जाने क्यों इसकी हो परवाह मुझे?



सन्दर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित

साच्चदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य जीवन की सार्थकता बताते हुए कवि स्पष्ट करता है कि दु:ख के बीच पीडा सहकर अपना मार्ग-प्रशस्त करने वाला तथा दूसरो की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाला व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।


व्याख्या:–

 कवि स्पष्ट कहता है कि वह अपने जीवन में किसी भी प्रकार के । कष्टों से छुटकारा पाने का आकांक्षी नहीं है। वह ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता है कि उसके जीवन का सूखा रेगिस्तान नन्दन कानन अर्थात् देवताओं के वन के समान सदैव खिले रहने वाले पुष्पों से महक उठे, बल्कि वह तो अपने जीवन में दुःखों एवं कष्टों का आकांक्षी है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार काँटे की श्रेष्ठता उपवन के तुच्छ फल में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन् अपने कठोरपन एवं नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है। कवि कहता है कि उसने कभी ऐसी चाह नहीं की कि वह युद्ध-भूमि से बिना कोई चोट खाए लौट आए, क्योंकि रण में खाई चोटें तो योद्धा का श्रृंगार होती हैं।

कवि सदैव अपने प्यार का प्रतिफल भी नहीं चाहता और न ही वह विश्वविजेता बनना चाहता है। वह दुनिया के वैभव एवं सुविधाओं का भी आकांक्षी नहीं है। कवि अपने जीवन में इतना महान् भी नहीं बनना चाहता है। कि लोग हमेशा उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखें, लोग उसे सम्मान एवं आदर के भाव से निहारें। वह यह भी नहीं चाहता है कि उसके जीवन का मार्ग हमेशा प्रशस्त रहे। अर्थात उसके द्वारा किए गए कार्यों की सदा प्रशंसा ही हो, उसे आलोचना न सहनी पड़े। सफलता एवं श्रेष्ठता से परिपूर्ण जीवन की भी कवि का कामना नहीं है। कवि की यह भी आकांक्षा नहीं है कि आज उसे जो सबका नेतृत्व करने का सुअवसर प्राप्त है, वह सदा से उसके साथ रहे अर्थात भविष्य में न छिने। वस्तुत: कवि स्वयं को किसी भी ऐसी आदर्श स्थिति से वंचित रखना पाहता है, जिसका सामान्यतया अधिकांश लोग कामना करते हैं। वह स्वयं को, अपने जीवन को एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के जीवन के रूप में जीने के लिए प्रस्तुत करना चाहता है, जो परहित की चिन्ता से व्याकुल हो, जो दूसरों के दुःख को अपना समझकर उसे दूर करने की कोशिश करे, जो अपने देश एवं समाज के हितों की पूर्ति करने में काम कर सके।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खड़ीबोली ।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – अनुप्रास, उपमा एवं रूपक।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – अभिधा एवं लक्षणा।




मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने।

फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गतिरोधक शूल बने!

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाता है--

क्या वह केवल अवसाद मलिन झरते आँसू की माला है?

वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव रस का कटु प्याला है –

वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहनकारी हाला हैं ?

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-

मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला!


सन्दर्भ:–

 पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तत पद्यांश में कवि कहता है कि जीवन की वास्तविक सार्थकता कष्टो, विघ्नबाधाओं तथा विरोधी परिस्थितियों के साथ संघर्ष करने में निहित है।


व्याख्या:–

 कवि कहता है कि मुझे अपने जनपद अर्थात अपने क्षेत्र की धूल बन जाना स्वीकार है, भले ही उस धूल का प्रत्येक कण मुझे जीवन में आगे बढ़ने से रोके। और मेरे लिए पीड़ादायक बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कष्ट सहकर भी मातृभूमि की। सेवा करने या उसके काम आ जाने ही चाह व्यक्त की गई है।

कवि का कहना है कि हम अपना कर्त्तव्य समझ कर जिसका पालन-पोषण करते हैं, जिस पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं, उस श्रम, त्याग और आत्मीयता का प्रतिफल केवल दुःख, उदासी और अश्रु के रूप में कदापि प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् हमें कर्मों के परिणामों की चिन्ता छोड़ सदा कर्तव्य-पथ  पर चलते रहना चाहिए। अन्ततः परिणाम सकारात्मक ही होता है। कवि आगे कहता है कि प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते और वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतनाविहीन निर्जीव की भाँति ही हैं, जिनके लिए प्रेम चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं। वास्तव में प्रेम तो मानवीय चेतना का संचार करने वाली संजीवनी बूटी के समान है। कवि कहता है कि उसने अनेक बाधाओं एवं कठिनाइयों की आग में जलकर जीवन के अन्तिम रहस्य को समझ लिया है। जब वह स्वयं आहुति बना, तब उसे प्रेमरूपी यज्ञ की ज्वाला का पवित्र कल्याणकारी रूप दिखाई दिया। विभिन्न कठिनाइयों एवं बाधाओं को पार करके ही वह आज विकास एवं प्रगति के इस शिखर पर पहुंचा है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खड़ीबोली ।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – अनुप्रास, पुनरुकित प्रकाश एवं रूपक।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।





मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ

कुचला जाकर भी धूली सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि धार बने

इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा बार बने !

भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-

तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने!


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में जीवन के कठिन संघर्षों से हार न मानकर, उनसे उत्साहपूर्वक जूझने की प्रेरणा दी जा रही है।


व्याख्या:–

 कवि धूल से प्रेरणा लेते हुए कहता है कि जिस प्रकार धूल लोगों के पैरों तले रौन्दी जाती है, फिर भी हार नहीं मानती और उलटे आँधी का रूप धारण कर रौन्दने वालों को ही पीड़ा पहुँचाने लगती है, उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित होकर उत्साहित होकर आगे की ओर बढ़ता ही जाता हूँ। यहाँ कहने का भाव है कि मुश्किलों का सामना करके ही सफलता को प्राप्त किया जा सकता है।

कवि की चाह है कि उसका संघर्षपूर्ण जीवन चुनौती देने की पुकार बन  जाए। जीवन में मिली असफलता उसके लिए तलवार की धार बनकर सफलता की राह को निष्कण्टक बना दे और जीवनरूपी कठिन संग्राम में रह-रह कर रुक जाना ही उसका प्रहर बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कवि जीवन की बाधाओं व असफलताओं को ही अपनी शक्ति बनाकर और उनसे प्रेरणा लेकर सफलता प्राप्त करने के लिए संकल्पित दिखता है।’अन्ततः कवि ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ कहता है कि मैं अपनी हार, असफलता सहित अपना सारा संसार ही तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा तुम्हें आहुति रूप में समर्पित की गई सारी वस्तुएँ अग्नि बनकर मेरे जीवनरूपी यज्ञ को पूर्ण करने में सहायक बन जाएँ। साथ ही साथ मेरा यह मौन प्रेम तेरी पुकार की तरह ही अति प्रभावशाली होकर परम विस्तार को प्राप्त कर ले।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – साहित्यिक खड़ीबोली ।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त ।

अलंकार – अनुप्रास, पुनरुकित प्रकाश एवं रूपक।

गुण – प्रसाद ।

शब्द शक्ति – लक्षणा।




हिरोशिमा संदर्भ सहित व्याख्या:–



एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं

नगर के चौकः धूप बरसी

पर अन्तरिक्ष से नहीं

फटी मिट्टी से ।


सन्दर्भ :–

प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘हिरोशिमा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में हिरोशिमा के उस काले दिन का वर्णन किया गया है, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने उस पर परमाणु बम गिराया था।


व्याख्या :–

कवि कहता है कि एक दिन सूर्य अचानक निकल आया, पर वह आकाश में नहीं, बल्कि हिरोशिमा नगर के एक चौक पर निकला था। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर आकाश से धूप की वर्षा होने लगती है अर्थात् धूप चारों ओर फैल जाती है, उसी प्रकार उस दिन वहाँ की फटी हुई मिट्टी धूप बरसा रही थी। वस्तुतः यहाँ कवि ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का उल्लेख किया है। नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े-से-गड्ढे में परिवर्तित हो गई थी, जिसे कविता में ‘फटी मिट्टी कहा गया है। बम विस्फोट के दुष्परिणामस्वरूप उस स्थान से काफी अधिक मात्रा में। विषैली गैसें निकल रही थीं। उन गैसों के साथ निकले ताप से समस्त प्रकृति झुलस। रही थी। विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मानव के अस्तित्व को मिटा रही थीं।। प्रस्तुत पद्यांश में इन्हीं सब बातों का प्रतीकात्मक वर्णन किया गया है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – रूपकातिशयोक्ति एवं अन्त्यानुप्रास।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति –लक्षणा।




छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन

सब ओर पड़ी वह सूरज नहीं उगा था पूरब में,

वह बरसा सहसा

बीचो-बीच नगर के काल सूर्य के रथ के

पहियों के ज्यों अरे टूट कर

बिखर गये हों दसों दिशा में!

कुछ क्षण का यह उदय-अस्त!

केवल एक प्रज्ज्वलित क्षण की

दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर ?


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का भीषण चित्र प्रस्तुत किया है।


व्याख्या:–

 हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट का उल्लेख करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार आकाश में सूरज के उदित होने पर पूरी धरती पर मानव की छाया बनने लगती है, उसी प्रकार उस दिन भी हर तरफ मानवों की छविओं से पूरा वातावरण पटा हुआ था, पर वे छवियाँ दिशाहीन होकर यूँ ही धरती पर चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उस दिन का सूर्य प्रतिदिन की तरह पूरब दिशा से नहीं निकला था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूट कर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हों। परमाणु विस्फोट के रूप में सूर्य के उदित होने और उसके अस्त होने के वे दृश्य क्षणिक थे अर्थात वे प्राकतिक सूर्योदय और सर्यास्त की तरह धीरे-धीरे निश्चित समयानुसार आगे बढ़ने की प्रक्रिया के बन्धन में बन्धे न थे और न ही उन दोनों दृश्यों के मध्य दिनभर का फासला ही था। यहाँ परमाणु विस्फोट के सन्दर्भ में सर्य के उदित होने का अर्थ है विस्फोट के दौरान अत्यधिक मात्रा में प्रकाश और ताप का निकलना और सूर्य के अस्त होने का अर्थ है विस्फोट के बाद अत्यधिक मात्रा में निकले धुआँ के कारण वातावरण में उत्पन्न अँधेरा। कवि कहता है कि एक साथ सूयोदय और सूर्यास्त का आभास दिलाने वाला मानवीय गतिविधियों के दष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न दोपहर का वह ज्वलन्त भण अपने ताप से वहाँ के दश्यों को भी सोख लेने वाला था अर्थात परमाण विस्फोट रूपी वह सूर्य अपने हानिकारक प्रभाव से सब कुछ जला कर राख कर देने वाला था।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – रूपकातिशयोक्ति एवं अन्त्यानुप्रास।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति –लक्षणा।




छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लम्बी हो-हो कर;

मानव ही सब भाप हो गये। 

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्थरों पर

उजड़ी सड़कों की गच पर। 

मानव का रचा हुआ सूरज

मानव को भाप बना कर सोख गया।

पत्थर पर लिखी हुई यह जली हुई छाया

मानव की साखी है।


सन्दर्भ :–

पूर्ववत्।


प्रसंग :–

प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध की उस भीषण तबाही का उल्लेख किया गया है, जिसका कारण था, अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर परमाणु बम। गिराया जाना।


व्याख्या :–

कवि कहता है कि हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट के दुष्परिणाम स्वरूप उत्सर्जित विकिरणों और ताप ने मानवों को जलाकर वाष्प में बदल दिया, किन्तु उनकी छायाएँ लम्बी हो-होकर भी समाप्त नहीं हो पाईं। विकिरणों से झुलसे हुए वहाँ के पत्थरों तथा क्षतिग्रस्त हुई सड़कों की दरारों पर वे मानवीय छायाएँ आज भी विद्यमान हैं और मौन होकर उस भीषण त्रासदी की कहानी कह रही हैं। कवि आकाशीय सूर्य से मानव निर्मित इस सूर्य की तुलना करता हुआ कहता है कि आकाश का सूर्य हमारे लिए वरदान स्वरूप है, उससे हमें जीवन मिलता है, परन्तु मनुष्य रचित यह सूर्य अर्थात् परमाणु बम अति विध्वंसक है, क्योंकि इसने अपनी विकिरणों से मानव को वाष्प में परिणत कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी। पत्थर पर विद्यमान मानव की छाया इस सच का जीता-जागता सबूत है। इस प्रकार यहाँ मानव को ही मानव के विध्वंसक का कारण देख कवि अत्यन्त मर्माहित है।


काव्य गत सौन्दर्य:–


भाषा – खड़ीबोली।

शैली – प्रतीकात्मक ।

छन्द – मुक्त।

अलंकार – रूपकातिशयोक्ति एवं अन्त्यानुप्रास।

गुण – ओज ।

शब्द शक्ति –लक्षणा।


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