अबिगत–गति कछु कहत न आवे।
ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावे।।
परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावे। मन बानी कों अगम अगोचर, सो जाने जो पावे।।
रूप-रेख-गुण-जाति-जुगाती- बिनु निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहि तातै सुर सगुन –पद गावै।।
संदर्भ :–
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।
प्रसंग :–
उपरोक्त पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के कमल रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति भावना को व्यक्त किया है। इन्होंने निर्गुण ब्रह्मा की आराधना को अत्यंत कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को सुगम और सरल बताया है।
व्याख्या:–
सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्मा की आराधना करना कठिन है ।उसके स्वरूप के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनंद का वर्णन कोई व्यक्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है , वह उसका मौखिक वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनंद का केवल अनुभव किया जा सकता है उसे मौखिक बोलकर प्रकट नहीं किया जा सकता है। यधापि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरंतर अति अत्यधिक आनंद प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम संतोष भी प्राप्त होता है। मन और वाणी द्वारा ईश्वर तक पहुंचा नहीं जा सकता है, जो इंद्रियों से परे हैं, इसलिए उसे अगम अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानता है। उस निर्गुण ईश्वर का कोना कोई रूप है ना आकृति, ना ही हमें उसके गुणों का ज्ञान है, जिससे हम उसे प्राप्त कर सके। बिना किसी आधार के उसे कैसे पाया जा सकता है? ऐसी स्थिति में भक्तों का मन बिना किसी आधार के कहां-कहां भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचना असंभव है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्री कृष्ण लीला के पद का गाना अधिक उचित समझा है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा साहित्यिक ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस भक्ति और शांत
छंद गीतात्मक
शब्द शक्ति लक्षणा
अलंकार अनुप्रास अलंकार
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