कान्ह भये बस बांसुरी के, अब कौन सखी, हमकौं चहिहै।
निसधोस रहे संग - साथ लगीं,यह सौतिन तापन कयौं सहिहै।।
जिन मोहि लियौ मनमोहन कौ, रसखानि सदा हमकौं दहिहै।
मिलि आओ सबै सखि, भागि चलैं अब तो ब्रज में बंसुरी रहिहै।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
उपरोक्त सवैया में कवि रसखान ने गोपियों का श्री कृष्ण की बांसुरी के प्रति सौतन रूपी भाव का वर्णन किया है।
व्याख्या :-
एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण को तो उनकी बांसुरी ने पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है। अब हमें कौन चाहेगा और हम हम से कौन प्रेम करेगा? उनकी बांसुरी तो रात दिन उनके साथ ही रहती हैं, यह तो हमें सौतन की भांति दु:ख दे रही है, इसे हम कैसे सहन करेंगे? इस बांसुरी ने मनमोहन श्रीकृष्ण को अपने मोह में फंसा लिया है और हमें ईर्ष्या से हमेशा जलाती रहती हैं।
हे सखी! आओ हम सब मिलकर इस ब्रज से भाग चलें, क्योंकि अब तो ब्रज में श्रीकृष्ण के साथ केवल यह बांसुरी ही रहेगी अर्थात इस बांसुरी की मोह ने श्रीकृष्ण को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है। अतः हमारा यहां अब कोई नहीं अर्थात श्री कृष्ण के प्रेम से वंचित होकर हमारा ब्रज में निर्वाह नहीं हो सकता।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य । रस - श्रृंगार
छन्द - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार।
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