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जा दिन तें वह नंद की छोहरा, या बन धेनु चराइ गयौ है।मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।।

 जा दिन तें वह नंद की छोहरा, या बन धेनु चराइ गयौ है।मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।।

वा दिन सो कछु टोना सो कै,‌रसखानि हियै मैं समाइ गयौ है।

कोऊ न काहु की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर, बिकाइ गयौ है।।

संदर्भ:-

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।

प्रसंग :-

प्रस्तुत पद्यांश में ब्रज की गोपियों पर श्री कृष्ण के मनमोहक प्रभाव का सुंदर चित्रण किया गया है।

व्याख्या:-

श्री एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि जिस दिन से वह नंद का पुत्र इस वन में अपनी गाय चराने के लिए आया है और अपनी बांसुरी की मधुर तान सुना कर हमें अपनी अपने प्रति रिझा गया है।
हे सखी! उसी दिन से ऐसा जान पड़ता है कि वह कोई जादू–सा कर हमारे हृदय में बस गया है अर्थात श्री कृष्ण के प्रति प्रेम हमारे हृदय में समा गया है। हे सखी! तब से कोई भी किसी की शर्म नहीं कर रहा, कोई भी गोपी किसी भी मर्यादा का पालन नहीं करती। सभी ब्रज की गोपियां, श्री कृष्ण के लिए व्याकुल हो रही है अर्थात श्री कृष्ण की बांसुरी के वशीभूत हो गई हैं और सभी ने अपनी लाज–शर्म को त्याग दिया है अर्थात संपूर्ण ब्रज ही उनके हाथों बिक गया है।

काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज।                 शैली - मुक्तक
गुण - माधुर्य।                  रस - श्रृंगार
छंद - सवैया ।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार।



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