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नीके निरखि नयन भरि शोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।। अहह तात दारूनि हठ ठानी। समुझत नहि कछु लाभु न हानी।।

 नीके निरखि नयन भरि शोभा।

पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।

अहह तात दारूनि हठ ठानी। 

समुझत नहि कछु लाभु न हानी।।

सचिव सभय सिख देइ न कोई।

 बुध समाज बड़ अनुचित होई।।

 कह धनु कुलि सहु चाहि कठोरा।

 कह स्यामल मृदुगात किसोरा ।।


संदर्भ:–

 प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक के खंडकाव्य के धनुष भंग शीर्षक से उद्धृत है यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है।


प्रसंग:–

 प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी के मन में संदेह है कि इतनेतने कोमल शरीर वाले राम ये शिव धनुष कैसे तोड़ेंगे, इसलिए उन्हें अपने पिता द्वारा किए गए कठोर प्रण पर क्रोध आ रहा है। इसी मनोदशा का वर्णन किया गया है।


व्याख्या:–

 तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्री राम धनुष तोड़ने के लिए मंच पर खड़े हुए और सीता जी उनकी शोभा को भली भांति बाद देख रही हैं, तभी उन्हें अपने पिता के धनुष तोड़ने का कठोर पर याद आया तो उनका मन अत्यंत दुखी हो गया। सीता जी मन ही मन सोचती है कि पिताजी ने इस कठोर परण का आयोजन क्यों किया?

 किसी ने उन्हें समझाया क्यों नहीं, वे अपनी इस हठ के आगे उससे होने वाली लाभ हानि के बारे में कुछ नहीं सोच रहे हैं मंत्री जी भी भय के कारण उन्हें कुछ नहीं समझा पा रहे हैं। इस सभा में बड़े बड़े ज्ञानी बैठे हैं, तब भी यहां इतना बड़ा अनुचित हो रहा है, कोई भी इस अनर्थ को नहीं रोक पा रहा है। 

कहां वज्र से भी कठोर यह धनुष और कहां यह कोमल शरीर वाले सावले किशोर श्रीराम अर्थात सीता जी के मन में यह भय बैठ गया है कि श्री राम इस वज्र समाज के सामान धनुष को तोड़ पाएंगे या नहीं।


 काव्यगत सौंदर्य

 भाषा –अवधी।      शैली– प्रबंध 

गुण– माधुर्य ।          रस –श्रृंगार और भक्ति 

छंद –दोहा।          अलंकार –अनुप्रास अलंकार

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