मैं अपनी सब गाइ चरैहौ।
प्रात होत बाल के संग जैहौ, तेरे कहैं न रैहौ ।।
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहूं डर नहि लागत।
आजु न सोवाे नन्द– दुहाई, रैनि रहौगौ जागत।।
और ग्वाल सब चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौ।
सूर श्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान में देंहौ।।
संदर्भ :–
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के पद शीर्षक से उद्धृत है यह सूरदास द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य से ली गई है।
प्रसंग:–
प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के स्वभाविक बाल हठ का चित्रण किया है, जिसमें वह अपने ग्वाल शाखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हट कर रहे हैं।
व्याख्या:–
बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हट करते हुए कहते हैं कि हे माता! में अपनी गांयो को चराने वन जाऊंगा। प्रात: काल होते ही में भैया बलराम के साथ वन में जाऊंगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में ना रुकूंगा , क्योंकि वन मे ग्वाल शाखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज मैं नंद बाबा की कसम खाकर कहता हूं कि रात भर नहीं सोऊंगा, जागता रहूंगा। हे माता! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाए और मैं घर में बैठा रहूं। ये सुनकर माता यशोदा ने श्री कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र! अब तुम सो जाओ सुबह होने पर मैं तुम्हें गाय चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी ।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य
रस वात्सल्य
छंद गेय पद
शब्द शक्ति लक्ष्णा
अलंकार अनुप्रास अलंकार
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