सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (Suryakant Tripathi Nirala) का जीवन परिचय
पूरा नाम | पं० सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ |
उपनाम | निराला |
जन्म | 21 फरवरी, 1897 – महिषादल, मेदिनीपुर, बंगाल |
मृत्यु | 15 अक्टूबर, 1961 – इलाहाबाद (प्रयागराज), उत्तर प्रदेश |
पिता का नाम | पं० रामसहाय त्रिपाठी |
माता का नाम | रुकमणी देवी |
पत्नी | श्रीमती मनोहरा देवी |
संतान | पुत्र – रामकृष्ण त्रिपाठी, पुत्री – सरोज |
शिक्षा | हाईस्कूल तक, संस्कृत, बंगला, अंग्रेज़ी का स्वाध्याय |
भाषा | खड़ीबोली हिंदी |
विधाएं | कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना |
पुरस्कार | पद्मभूषण (मरणोपरांत) |
साहित्यिक योगदान
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी साहित्य के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक थे। वे एक कवि, उपन्यासकार, निबंधकार, आलोचक, और अनुवादक थे। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज, संस्कृति और मानवता के मूल प्रश्नों को छुआ और साहित्य में नवीनता का प्रवाह किया।
उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने साहित्य में कभी समझौता नहीं किया। उनकी पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद रचित "सरोज-स्मृति" आज भी हृदय को झकझोर देती है।
निराला की प्रमुख काव्य रचनाएं:
- परिमल
- अनामिका
- गीतिका
- तुलसीदास
- अपरा
- अणिमा
- कुकुरमुत्ता
- अर्चना
- नए पत्ते
- बेला
- आराधना
- सरोज-स्मृति
गद्य रचनाएं (कहानी/उपन्यास/निबंध):
- अप्सरा
- लिलि
- अलका
- निरुपमा
- प्रभावती
- चतुरी चमार
विशेष योगदान:
- रामचरितमानस (विनय पत्रिका) का अनुवाद – 1948
- पत्रिकाओं का संपादन – समन्वय, मतवाला, सुधा
निराला जी का साहित्यिक व्यक्तित्व
निराला जी न केवल छायावाद के अग्रदूत थे बल्कि प्रगतिशीलता और मानवता के भी संवाहक थे। उनकी रचनाएँ सामाजिक विषमताओं पर करारा प्रहार करती हैं। उनके साहित्य में संवेदना, विद्रोह, प्रेम, पीड़ा और आत्मगौरव का अद्भुत समन्वय मिलता है।
FAQs
- Q1: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म कब और कहाँ हुआ?
Ans: 21 फरवरी 1897, महिषादल राज्य, मेदिनीपुर (बंगाल) में। - Q2: निराला जी की पुत्री का नाम क्या था?
Ans: सरोज - Q3: ‘सरोज-स्मृति’ किस घटना से संबंधित है?
Ans: उनकी विवाहिता पुत्री सरोज की मृत्यु से। - Q4: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का निधन कब हुआ?
Ans: 15 अक्टूबर, 1961 – प्रयागराज (इलाहाबाद) - Q5: उन्हें कौन-सा पुरस्कार मरणोपरांत मिला?
Ans: पद्मभूषण
नोट: सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी साहित्य के वह स्तंभ हैं, जिन्होंने साहित्य में न केवल सौंदर्य का समावेश किया, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रसार भी किया।
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