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जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ,पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े। पोंछि पसेउ बयारि करौं,अरु पायं पखरिहौं भूभुरि डाढ़े।।

"तुलसीदास काव्य 'वन पथ पर' का सार | श्रीराम-सीता के प्रेम का मार्मिक चित्रण":- 


  "जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ,पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े।


पोंछि पसेउ बयारि करौं,अरु पायं पखरिहौं भूभुरि डाढ़े।।"


तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।


जानकी नाहि को नेह लख्यौ, तनु बारि बिलोचन बाढ़े।।




संदर्भ:–

 प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्य खंड के वन पथ पर शीर्षक से उद्धृत हैं। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली के अयोध्या कांड से लिया गया है।




प्रसंग :-

प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने सीता जी की व्याकुलता तथा सीता जी के प्रति राम के प्रेम का सजीव वर्णन किया है ।




व्याख्या :-

कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी चलते चलते थक गई हैं और उन्हें प्यास लगने लगी है, तो लक्ष्मण उनके लिए जल लेने के लिए गए हुए हैं। तभी सीताजी, श्री राम से कहती हैं कि जब तक लक्ष्मण नहीं आते तब तक हम घड़ी भर कहीं छांव में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेते हैं। सीता जी श्री राम से कहती हैं, मैं तब तक आपका पसीना पहुंचकर हवा कर देती हूं तथा बालू से तपे हुए पैर धो देती हूं। श्रीराम समझ गए कि सीता जी थक चुकी हैं और वह कुछ समय विश्राम करना चाहती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने सीता जी को थका हुआ देखा तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर अपने पैरों में से कांटे निकाले। सीता जी ने अपने स्वामी के प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और आंखों में प्रेम रूपी आंसू छलक आए।




काव्य गत सौन्दर्य 


 भाषा - ब्रज। शैली - मुक्तक


रस - श्रृंगार । गुण - मार्धुय


शब्द शक्ति - लक्षणा एवं व्यंजना 


अलंकार - अनुप्रास अलंकार।


 

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