अलंकार
अलंकार का अर्थ
अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है— अलं + कार। अलं का अर्थ 'भूषण या सजावट' तथा कार का अर्थ 'करने वाला' होता है अर्थात् जो अलंकृत या भूषित करें वह अलंकार है। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है— आभूषण। जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, वैसे ही अलंकार के प्रयोग से काव्य में चमत्कार, सौंदर्य और आकर्षण उत्पन्न हो जाता है।
अलंकार की परिभाषा एवं निम्नलिखित हैं:-
सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्त के विशेष द्वार हैं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “भावों क उत्कर्ष दिखाने और वस्तु के रूप, गुण क्रिया का अधिक तीव्रता से अनुभव कराने में सहायक होने वाली उक्ति अलंकार है।”
अलंकार के भेद :-
अलंकार के मुख्यत: तीन भेद होते हैं
1.शब्दालंकार
2.अर्थालंकार
3. उभयालंकार
शब्दालंकार :-
काव्य में शब्दों के प्रयोग से जो चमत्कार या सौन्दर्य उत्पन्न होता है, शब्दालंकार कहलाता है। शब्दालंकार के मुख्यत: निम्नलिखित प्रकार हैं—
यमक, अनुप्रास , स्लेष।
(1) अनुप्रास :–
जहाँ व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति हो, चाहे उनके स्वर मिले या न मिले वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
अनुमास के पांच भेद होते हैं-
(1) छेकानुप्रास, (2) वृत्त्यनुप्रास, (3) श्रुत्त्यनुप्रास, (4) लाटानुप्रास, (5) अन्त्यानुप्रास ।
उदाहरण:–
1.
राधा के वर बैन सुनि चीनी चकित सुभाइ ।
दाख दुखी मिसरी मुई सुधा रही सकुचाइ।
2.
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
(2) यमक:–
जहाँ भिन्न-भिन्न अर्थों वाले शब्दों की आवृत्ति हो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण:–
इकली डरी हौं, घन देखि के डरी हौं,
खाय बिस की डरी हौं घनस्याम मरि जाइ हौं।
ऊपर के पद में 'डरी' तीन बार आया है अर्थ भिन्न-भिन्न है। पहली डरी का अर्थ पड़ी है, दूसरी डरी का अर्थ 'भयभीत' है तथा तीसरी डरी का अर्थ विष की डली या टुकड़ी है।
(3) श्लेष :–
जहाँ एक शब्द का एक ही बार प्रयोग होता है और उसके एक से अधिक अर्थ होते हैं, वहाँ श्लेषालंकार होता है।
उदाहरण:–
चिरजीवो जोरी जुरे क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा ए हलधर के वीर।।
यहाँ वृषभानुजा दो अर्थों में प्रयुक्त है, पहला वृषभानु की पुत्री राधा, दूसरा वृषभ की अनुजा गाय। इसी प्रकार 'हलधर के वीर' के भी दो अर्थ है-
(1) हलधर अर्थात् बलराम के कृष्ण तथा
(2) हलधर को धारण करने वाले बैल के भाई बैल। 'वृषभानुजा' तथा 'हलधर' के एक से अधिक अर्थ होने के कारण यहाँ श्लेष अलंकार है।
अर्थालंकार :-
काव्य में अर्थ की विशेषता के कारण जो सौंदर्य व चमत्कार उत्पन्न होता है, अर्थालंकार होता है।
अर्थालंकार के निम्नलिखित प्रकार हैं—उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिश्योक्ति, दृष्टांत, मानवीयकरण, संदेह, प्रतीप, भ्रांतिमान।
उभयालंकार :-
शब्द तथा अर्थ दोनों पर समान रूप से आश्रित होने वाले अलंकार को उभयालंकार कहा जाता है।
उपमा अलंकार :-
जब किसी वस्तु का वर्णन करने के लिए उससे अधिक प्रसिद्ध वस्तु से गुण, धर्म आदि के आधार पर उसके समानता की जाती है, तब उपमा अलंकार होता है।
अन्य शब्दों में जहां दो वस्तुओं के बीच समानता का भाव व्यक्त किया जाता है, उपमा अलंकार कहलाता है।
उपमा अलंकार के अवयव या अंग
उपमा अलंकार के चार अंग हैं, जो निम्न प्रकार हैं
1. उपमेय जिस वस्तु की तुलना की जाए, वह 'उपमेय' कहलाता है।
2. उपमान जिस वक्त से तुलना की जाए उसे 'उपमान' कहते हैं।
3. साधारण या समान धर्म दो वस्तुओं में जिस गुण के कारण परस्पर की तुलना की जाती है वह 'साधारण या समान धर्म' कहलाता है।
4. वाचक शब्द उपमेय और उपमान में समानता व्यक्त करने वाले शब्द 'वाचक शब्द' कहलाते हैं; जैसे— सम, सा,सी, से,सरिस, जैसे,इव, समान, सदृश आदि।
उदाहरण
कर कमल के समान सुंदर हैं।
स्पष्टीकरण
(i) उपमेय कर(हाथ)
(ii) उपमान कमल (फूल)
(iii) साधारण धर्म सुंदर
(iv) वाचक शब्द समान
अन्य उदाहरण
1. हाय फूल–सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी।
2. सिंधु–सा विस्तृत और अथाह एक निर्वाचित का उत्साह।
रूपक अलंकार :-
जब उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी दोनों में समानता की जाए और उपमेय को उपमान के रूप में दिखाया जाए, तो रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण
मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहो।
स्पष्टीकरण इसमें चंद्रमा(उपमेय) पर खिलौना (उपमान) का अभेद आरोप हुआ है। अतः यहां रूपक अलंकार है।
अन्य उदाहरण
1. आए महंत वसंत।
2. एक राम धनश्याम हित चातक तुलसीदास।
3. राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
उत्प्रेक्षा अलंकार :-
जब उपमान से भिन्नता जानते हुए भी उपमेय में उपनाम की संभावना की जाए, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसमें प्रायः मनु, मानो, मनौ, जनु, जानो, निश्चय जैसे शब्द का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण
सोहत ओढ़े पीतु पटु, स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु पर् यो प्रभात।।
स्पष्टीकरण श्रीकृष्ण पितांबर पहने हुए हैं। उनके शरीर को देखकर ऐसा लगता है मानो नील पर्वत पर प्रभात के सूर्य का (पीले रंग का) प्रकाश पड़ रहा हो।
यहां श्रीकृष्ण (उपमेय) में नील पर्वत पर सूर्य के प्रकाश (उपमान) की संभावना की गई है। यह मनौ शब्द से प्रकट हो रहा है।
अन्य उदाहरण
1. सिर फट गया उसका वहीं
मानो अरुण रंग का घड़ा।
2. चितवनि चारु भृकुटी बर बांकी।
तिलक रेख सोभा जनु चांटी।।
3. उस काल मारे क्रोध के तनु कांपने उसका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।।
अनन्वय:–
जहाँ उपमान के अभाव में उपमेय ही को उपमान मान लिया जाय यहाँ अनन्वय अलंकार होता है।
उदाहरण:–
राम से राम सिया सी सिया
सिर मौर बिरंचि बिचारि संवारे।
प्रतीप:–
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना दिया जाय अथवा उसकी व्यर्थता प्रदर्शित की जाय यहाँ प्रतीप अलंकार है।
जैसे:–
सांवले रंग के शरीर का प्रसिद्ध उपमान यमुना जल है तुलसीदासजी ने भगवान् राम के बनवास जाते समय मार्ग में यमुना स्नान करने के प्रसंग में इस अलंकार का प्रयोग किया है-
उदाहरण:–
उतारि नहाये जमुन जल जो सरीर सम स्याम।
सन्देह:–
जहाँ किसी वस्तु की समानता अन्य वस्तु से दिखायी पड़ने से यह निश्चित न हो पाये कि वह वस्तु वहीं है या कोई अन्य, वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
लंका-दहन के वर्णन में हनुमान की पूँछ को देखकर यह निश्चित ज्ञान नहीं हो पाता कि यह आकाश में अनेक पुच्छल तारे हैं या पर्वत से अग्नि की नदी सी निकल रही है-
उदाहरण:–
कैधौं व्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु
कधी चली मेरु तैं कृसानुसारि भारी है।
सन्देह अलंकार का एक और उदाहरण-
नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।
भ्रान्तिमान:–
सन्देह में तो यह संदेह बना रहता है कि यह वस्तु रस्सी है या सर्प है, परन्तु भ्रान्तिमान में तो अत्यन्त समानता के कारण एक वस्तु को दूसरी समझ लिया जाता है और उसी भूल के अनुसार कार्य भी कर डाला जाता है। यथा--
बिल बिचारि प्रविसन लग्यो नाग शुंड में ब्याल।
ताहू कारी ऊख भ्रम लियो उठाय उत्ताल ॥
यहाँ सर्प को हाथी की सूंड में बिल होने की भ्रान्ति हुई और वह उसी भूल के अनुसार क्रिया भी कर बैठा, उसमें घुसने लगा। उधर हाथी को भी सर्प में काले गन्ने की प्रान्ति हुई और उसने तत्काल उसे गन्ना समझ कर उठा लिया।
दृष्टान्त:–
जहाँ उपमेय व उपमान के साधारण धर्म में भिन्नता होते हुए भी बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से कथन किया जाय वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है।
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बड़े दुख द्वन्द।
अधिक अँधेरो जग करत मिलि मावस रवि चन्द।।
अतिशयोक्ति:–
जहाँ किसी वस्तु की इतनी अधिक प्रशंसा की जाय कि लोकमर्यादा का अतिक्रमण हो जाय, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
अब जीवन की है कपि आस न कोय।
कनगुरिया की मदुरी कंगना होय।।
यहाँ शरीर की क्षीणता को व्यक्ति करने के लिए अंगूठी को कंगन होना बताया गया है, अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
Thanks for watching...................
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