Header Ads Widget

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय ( Swami Dayanand Saraswati biography in hindi )

Telegram Group Join Now

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय ( Swami Dayanand Saraswati biography in hindi ):-



नाम - स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि दयानंद सरस्वती

जन्म - 12 फरवरी 1824, टंकारा, गुजरात

मृत्यु - 30 अक्टूबर 1883, अजमेर, राजस्थान

अभिभावक - करशनजी लालजी तिवारी और यशोदाबाई

कार्य - आर्य समाज के संस्थापक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी, राजनीतिज्ञ, लेखक आदि।

धर्म - हिन्दू

रचनाएं - सत्यार्थ प्रकाश (1875 और 1884); संस्कारविधि (1877 और 1884); यजुर्वेद भाष्यम (1878 से 1889) आदि।



स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन:-


स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा प्रांत में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को 12 फरवरी 1824 को हुआ। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण इनका नाम मूल शंकर रखा गया। शाश्वत सत्य और शिव की प्राप्ति हेतु मूल शंकर ने 21 वर्ष की आयु में समृद्ध घर-परिवार, मोह ममता के बंधनों को त्याग कर संन्यासी जीवन व्यतीत किया।


उन्होंने गुरु विरजानंद जी से व्याकरण व योग दर्शन की शिक्षा प्राप्त की। महर्षि दयानंद सरस्वती ने देश की पराधीनता के कारण निराश व हताश भारतीय जनमानस को आत्मबोध, आत्मगौरव, स्वाभिमान एवं स्वाधीनता का मंत्र प्रदान किया। उन्होंने देश के आत्मगौरव के पुनरुत्थान के लिए अभूतपूर्व कार्य किया।


लोक कल्याण के निमित्त अपने मोक्ष के आनंद को वरीयता न देकर जनजागरण करते हुए उन्होंने अंधविश्वासों का प्रखरता से खंडन किया। वे अज्ञान, अन्याय और अभाव से ग्रस्त लोगों का उद्धार करने हेतु जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे।


सत्य की खोज में स्वामी दयानंद सरस्वती:-

14 साल की उम्र में अपनी बहन की मृत्यु के बाद वे आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए। वे अक्सर अपने माता-पिता से जीवन, मृत्यु और उसके बाद के जीवन के बारे में सवाल पूछते थे जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। वयस्क हो जाने के बाद उन पर शादी का दबाव डाला गया जिसके कारण वे घर से भाग गए।


20 वर्षों तक मंदिरों, तीर्थों और पवित्र स्थानों के दर्शन करते हुए वे पूरे देश में घूमते रहे। जहां उन्होंने पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले योगियों से अपनी दुविधाओं के बारे में पूछा, लेकिन कोई भी उन्हें सही उत्तर नहीं दे सका। इसके बाद अंत में वे मथुरा पहुंचे जहां उन्होंने स्वामी विरजानंद से मुलाकात की। जिनसे प्रभावित होकर वे उनके उनके शिष्य बन गए।


स्वामी विरजानन्द ने दयानंद को वेदों का अध्ययन करने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान वेदों में मौजूद हैं। इसके बाद उनके गुरु विरजानंद ने स्वामी दयानंद सरस्वती को पूरे समाज में वैदिक ज्ञान फैलाने का काम सौंपा, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।


आर्य समाज की स्थापना:-


स्वामी दयानंद सरस्वती वेद ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक थे। उन्होंने 7 अप्रैल, 1875 को बंबई में 10 सिद्धांतों के साथ आर्य समाज की स्थापना की जो एक हिंदू सुधार आंदोलन था। यह समाज विशुद्ध रूप से ईश्वर, आत्मा और प्रकृति पर आधारित हैं। इस समाज ने लोगों की धार्मिक अवधारणाओं में एक बड़ा बदलाव लाया।


स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना करके लोगों को यह संदेश दिया कि “सभी कार्यों को मानव जाति को लाभ पहुंचाने के मुख्य उद्देश्य के साथ किया जाना चाहिए।” महर्षि दयानंद सरस्वती ने मनुष्य मात्र के लिए वेदों के अध्ययन के द्वार खोले थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।


आर्य समाज ने भारतीय जन मानस में आध्यात्मिक पुनर्गठन कर विभिन्न सामाजिक मुद्दों को समाप्त करने का भी काम किया। इनमें विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा प्रमुख थे। महर्षि दयानंद ने भी बालिकाओं को शिक्षित करने के महत्व को बताते हुए बाल विवाह का कड़ा विरोध किया।


उन्होंने मूर्ति पूजा और हठधर्मी अनुष्ठानों का पालन करने का पुरजोर विरोध किया। स्वामी दयानंद सबसे पहले ऐसे धर्माचार्य थे, जिन्होंने धार्मिक विषयों को केवल आस्था व श्रद्धा के आधार पर मानने से इनकार कर उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर कसने के उपरांत ही मानने का सिद्धांत दिया। इस समाज का उद्देश्य हिन्दू धर्म को काल्पनिक मान्यताओं से दूर करना था।


दयानंद सरस्वती का शुद्धि आंदोलन:-


स्वामी दयानंद सरस्वती ने शुद्धि आंदोलन भी चलाया। जिसमें उन्होंने स्वेच्छा से या अनैच्छिक रूप से इस्लाम या ईसाई धर्म जैसे अन्य धर्मों में परिवर्तित हुए लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए एक मुहिम छेड़ा। उनके इस प्रयास में उन्होंने समाज के दलित वर्गों को भी हिंदू धर्म में वापस ले लिया।


राजनीति में स्वामी दयानंद सरस्वती की भूमिका :-

1876 में ‘भारतीयों के लिए भारत’ के रूप में ‘स्वराज्य’ का आह्वान करने वाले वे पहले व्यक्ति थे, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने अपनाया था। उन्होंने राष्ट्रवाद के सभी प्रमुख सोपानों जैसे कि स्वदेश, स्वराच्य, स्वधर्म और स्वभाषा इन सभी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।


अंग्रेजों की दासता में आकंठ डूबे देश में राष्ट्र गौरव, स्वाभिमान व स्वराच्य की भावना से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरुआत करने तथा उपदेश, लेखों और अपने कृत्यों से निरंतर राष्ट्रवादी विचारों को पोषित करने के कारण महर्षि दयानंद आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के जनक थे।


स्वामी दयानंद सरस्वती हालांकि वास्तव में सीधे तौर पर राजनीति में शामिल नहीं थे, लेकिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी राजनीतिक टिप्पणियां कई राजनीतिक नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थी।


दयानंद सरस्वती द्वारा शिक्षाप्रद सुधार :-

स्वामी दयानंद सरस्वती ने छात्रों के लिए वेदों और समकालीन अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान प्रदान करने के लिए एंग्लो-वैदिक स्कूलों की शुरुआत करके भारत की शिक्षा प्रणाली को ही बदल कर रख दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने धर्मों पर भी सवाल उठाया। अपने अनुयायियों को वेदों का ज्ञान सिखाने के लिए और उनके लिए ज्ञान को आगे फैलाने के लिए कई गुरुकुलों की स्थापना की।


दयानंद सरस्वती ईसाई और इस्लाम धर्म के अलावा जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म आदि धर्मों के बारे में अपनी तार्किक, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक विश्लेषण भरी बातों से लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती हमेशा मूर्तिपूजा और कर्मकांड पर व्यर्थ जोर देने के खिलाफ रहे।


स्वामी दयानंद सरस्वती जन्म से जाति और वेदों को पढ़ने से महिलाओं को बाहर करने जैसी व्यर्थ की बातों को दूर करने के लिए भी आगे आए। वेदों के स्वर्णिम चिंतन को महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि में प्रस्तुत किया।


स्वामी दयानंद सरस्वती का संदेश :-


दयानंद सरस्वती का आर्य समाज के माध्यम से मुख्य संदेश हिंदुओं के लिए अपने धर्म की जड़ों की ओर वापस जाना था, जो कि वेद हैं। ऐसा करने से उन्हें लगा कि हिंदू इस देश में प्रचलित अवसादग्रस्त धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों को सुधारने में सक्षम होंगे।


स्वामी दयानंद सरस्वती ने धर्म की अवधारणाओं की पुरजोर वकालत की, वे लोगों के जीवन के प्रति सम्मान करने में विश्वास करते थे। उन्होंने अपने देशवासियों को सलाह दी कि वे अपनी ऊर्जा को मानव जाति की बेहतरी के लिए सदैव तैयार रहें।


उन्होंने मूर्ति पूजा की प्रथा को बंद किया और उन्हें अपने स्वयं के लाभ के लिए पुजारियों द्वारा शुरू किया गया एक व्यवसाय माना। स्वामी दयानंद अंधविश्वास और अन्य सामाजिक बुराइयों के सख्त खिलाफ रहे। इस प्रकार उन्होंने अनेक सामाजिक कार्य किए।


स्वामी दयानंद सरस्वती की हत्या :-

स्वामी दयानंद सरस्वती के कट्टर हिंदू धर्म के खिलाफ उनके मजबूत उपदेशों के कारण स्वामी दयानंद सरस्वती के कई दुश्मन भी हो गए थे। एक षड्यंत्र के तहत 29 सितंबर, 1883 को उन्हें जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने आशीर्वाद लेने के लिए अपने महल में आमंत्रित किया।


दयानंद सरस्वती ने दरबार की नर्तकी को नाराज कर दिया। तब नर्तकी ने रसोइया के साथ साजिश रची, जिसमें उनके दूध में कांच के टुकड़े मिला दिए। जिससे बेखबर स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने पी लिया जिसके कारण उनकी तबियत बहुत ख़राब हो गई।


स्वामी दयानंद सरस्वती उन लोगों की कुटिल चाल को समझ नहीं पाए जिसके कारण उन्होंने बहुत कष्ट सहा। लेकिन अंत में इस काम के सहयोग में शामिल रसोइया को स्वामी दयानंद सरस्वती ने माफ कर दिया। एक महीने तक बीमार रहने के बाद 30 अक्टूबर, 1883 की सुबह महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु हो गई।


FAQs

Q : स्वामी दयानंद सरस्वती के आध्यात्मिक गुरु कौन थे?


स्वामी विरजानन्द एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। इनको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था।


Q : स्वामी दयानंद से हम क्या प्रेरणा लेते हैं?


Ans : उन्होंने वेदों से प्रेरणा ली उन्हें ‘भारत के युग की चट्टान, अचूक और हिंदू धर्म का सच्चा मूल बीज माना। दयानंद का ‘वेदों की ओर वापसी’ का नारा वैदिक शिक्षा और धर्म की वैदिक शुद्धता के पुनरुद्धार का आह्वान था।


Q : स्वामी दयानंद सरस्वती का उद्देश्य क्या था?


Ans : स्वामी दयानंद सरस्वती ने परोपकार, मानव सेवा, कर्म और ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिसका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक और सामाजिक प्रगति थी।


Q : स्वामी दयानंद सरस्वती ने क्या लिखा?


Ans : ‘सत्यार्थ प्रकाश ‘ उस किताब का नाम है जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने लिखी है !



Post a Comment

0 Comments