आजु गयी हुती भोर ही हौं, रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं।
वाको जियौ जुग करोर, जसोमति को सुख जात कह्यो नहिं।।
तेल लगाइ लगाई कै अंजन, भौंहैं बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डारि हमेलनि हार निहारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं।।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक का काव्य खण्ड के सवैये शीर्षक से उद्धृत है यह कवि रसखान द्वारा रचित सुजान रसखान से लिया गया है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत सवैया में कवि रसखान ने श्री कृष्ण के प्रति माता यशोदा के वात्सल्य का वर्णन किया है।
व्याख्या :-
कवि रसखान कहते हैं कि एक सखी दूसरे सखी से कहती है कि आज मैं श्री कृष्ण के प्रेम में मग्न होकर प्रात:काल नंदजी के भवन में गई थी मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्री कृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जिए। श्री कृष्ण जैसा पुत्र पाकर यशोदा जी को जो सुख मिल रहा है, उसका वर्णन करना अत्यंत कठिन है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे अपने पुत्र के शरीर पर तेल ,आंखों में काजल , भौंहें संवारकर, माथे पर नजर का टीका लगाकर तथा उनके गले में पहनने के आभूषण डालकर उन्हें निहार रही थी और उन पर बलिहारी जा रही थीं तथा उन्हें पुचकरे रही थीं।
काव्यगत सौंदर्य
भाषा - ब्रज। शैली - चित्रात्मक और मुक्तक गुण - प्रसाद । रस - वात्सल्य
छंद - सवैया।
अलंकार - अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार।
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